तेरी आँखें क्यों भर आईं
मन रे देख, धरा की छाती पर
व्याकुल नागिन – सी लोट रहीं
उदधि की उद्वेलित लहरियों को
तेरी आँखेंक्यों भर आईं
तेरा प्राण क्यों बिफ़र उठा
तेरी साँसें क्यों रुद्ध हुईं
किस अग्यात दुख की जटिलताओं का
कर अनुमान,तेरा हास , रुदन बनकर
तेरी पलकों पर छ्लक आया, तेरे
प्राण कीअभिलाषित सारी कलियाँ
खिलने सेपहले क्यों मुरझगईं
क्यों तेरा चन्द्रमुख म्लान हुआ
किसअंधकार कीधीमीपुकार को
सुन तुमको लगा , प्रकृति फ़िर से
नवभू का निर्माण है करने जा रही
तभी उल्लसित हो,ये लहरियाँ बल खा रहीं
अरे नहीं , निरत , अनिद्र , सजग
गुहा-वन,मरु में निरुद्देश्य दौड़-दौड़कर,इसके
जीवन में, शांति और विश्रांति
के बीचकीरेखा मिट गई
ग्रीष्म का तपन, पावस की शीतलता
दोनोंबारी - बारी से , इसे सता रहे
प्रकृतिठगी, क्षुब्ध , भीत - लाचारये
लहरें , नियति केपास शरण माँगने
ऊपर की ओर भागी जा रहीं
तुमको नहीं पता, तुम नहीं जानते
प्रकृति ठगी इसके प्राणॊं में
कितनी दुख – पीड़ाएँ हैं भरी हुई
वाष्प बन उड़ जाऊँ न कहीं
खो न जाऊँ, निस्सीम केउत्स में
खा न जाये कहीं जमीं,अमरता की गुहार
लिये नियति के पास ऊपर भागी जा रहीं
तू छोड़, वृथा है यह तेरा सोचना
भूके तीन भाग पर, पहले सेही
अपना आधिपत्य जमाने वाला
यह उदधि, अब मनुज हिस्से के
भू -भाग कोअपने अधिकार में लेने
दौड़ रहा, और विशृंखलित लहरियाँ
मनुज को निगलने भुजंगियों सी लोट रहीं
अरे जो खुद ही बंदी है , जिसके
पास शोणित,आँसू और पसीने के सिवा
और कुछ नहीं, वह क्या प्रकृति के
हमसा प्रसन्न अवयव को सतायेगा
यह तेरा भ्रम है, और कुछ भी नहीं
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY