Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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तुम्हारी यादों के जख्म जब भरने लगते हैं

 

तुम्हारी यादों के जख्म जब भरने लगते हैं

जल्बे तुम्हारे शोले बन, दहकने लगते हैं


फुर्सते ख्वाब में भी अब करता नहीं मैं जिक्रे बुतां1

करने से, गम के सौ-सौ दीये जलने लगते हैं


हसरतों की तबाही में किस कदर दिल उजड़ा मेरा

सोचने से दिले-बादशाह तख्त से उतरने लगते हैं


रफ़ीके2-जिंदगी को मैंने अनीसे-वक्ते3 आखिर समझा

क्यों, जब कि वे मिलते ही चलने लगते हैं


मुहब्बत के दाग भी, निगाहें यार की तरह होते बेरहम

सरश्के-गम4 से धोने से, और चमकने लगते हैं


1. हसीनाओं 2. जीवन साथी 3. आखिर समय का मददगार 4. पीड़ा का अश्रु

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