Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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उर्मि का पाथार कैसे करेगा पार, प्रिये

 

उर्मि का पाथार कैसे करेगा पार, प्रिये


प्रिये! तुम अदृश्य जगत से, मेरे लिए

अंचल नौका बन इस धरती पर उतरी हो

मगर माया का यह देश, यहाँ जीना बड़ा

कठिन है, शरद की शुभ्र गंध-सा यह जीवन

उर्मि का पाथार, कैसे करेगा प्रार प्रिये


यहाँ कुसुम दल में रहता गरल छुपा

भविष्यत के वन में तिमिर घनघोर

मैत्री के शीतल कानन में रहता, कपट का शूल

सच में झूठ, सृजन संग रहता संहार, प्रिये

जहर भरे इस संसार के भव सागर को

शरद की शुभ्र गंध-सा यह जीवन

उर्मि का पाथार, कैसे करेगा पार प्रिये


यहाँ तृप्ति नहीं मिलती, मिलती केवल प्रतीक्षा

घन तिमिर से आवृत यह घरती नियति दिखलाती

निर्माण और विनाश में, प्रतिपद अपनी क्षमता

यहाँ जल रोता पत्थर पर पछाड़ खाकर

उठता पर्वत गर्तों में घैंस जाता, यहाँ हर जीवन

अपना देकर प्राण, मौत की कीमत चुकाता

यहाँ जीवन विपुल व्याल है, प्रिये

शरद की शुभ्र गंध-सा यह जीवन

उर्मि का पाथार, कैसे करेगा पार प्रिये


यहाँ घन गर्जन से पल्‍लव, कानन काँपता

पवन, द्रुत गति से होकर हताश, दौड़ता रहता

प्राणों का लोम-विलोम मध्याह्न किरण-सा तपता

शुष्क-पत्र, मुझझाया फूल, विकल होकर लोटता

यौवन का प्रेम कल्पना के विरह विनोद में, एक दिन

हो जाता इस जीवन का अवसान प्रिये

शरद की शुभ्र गंध-सा यह जीवन

उर्मि का पाथार, कैसे करेगा पार प्रिये


बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ हृदय की, कहाँ करूँ संचित इसे

बड़ा ही छोटा है, प्राणों का भंडार प्रिये

यहाँ पपीहा के कातर स्वर की ध्वनि, डाल समान

व्योम में उड़ती, मालती खिलती अर्द्ध-रात्रि में

मिलता नहीं किसी को विश्राम, दुख के काँटे से

बिंधे हुए है सभी यहाँ रजनी का दुख अपार प्रिये

शरद की शुभ्र गंध-सा यह जीवन

उर्मि का पाथार, कैसे करेगा पार प्रिये


यहाँ हिम शीतल चोटी के नीचे रहता ज्वालामुखी

दिन-रात लहकता रहता, लहू का पंचारिन

दूर्वा की श्याम साड़ी रहती फटी, जलती छाती को

मिलता नहीं प्रेमवारि, व्योम में दिवाकर अग्नि-

चक्र बनकर फेरा लगाता, जगती तल पर

किरण कराता पावक कण का बरसात, प्रिये

शरद की शुभ्र गंध-सा यह जीवन

उर्मि का पाथार, कैसे करेगा पार प्रिये

 


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