Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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वह सपना बड़ा भयानक था

 

वह सपना बड़ा भयानक था


         रतनपुर गाँव का वह कुआँ, जहाँ से बचपन में सीमा नित पीने का पानी कलशी में भरकर घर लाया करती थी| आज भी उस कुएँ को देखकर, सीमा के मन में विरागपूर्ण दुलार होता है| हो भी क्यों नहीं, प्रेमशंकर की विनयशीलता ने सीमा को यहीं पर वशीभूत कर, उसे अपना जो बनाया था| सीमा को प्रेमशंकर की नम्रता देवोचित प्रतीत हुई थी| उसके ह्रदय की उत्कंठा प्रेमशंकर पर सर्वस्व न्योछावर करने के लिए व्याकुल हो उठी थी| प्रेमशंकर की भी दशा तब उस जुआरी सी थी, जो जुए में खुद को हार चुका हो| एक दिन प्रेमशंकर, साहस कर सीमा से कहा–-- सीमा, इतने दिनों से मिलते रहने के बावजूद भी, तुम सर्वथा मुझसे अपरिचित रहने की कोशिश करती हो क्यों?

सीमा, अभिमान भरी हँसी के साथ बोली, वो इसलिए कि आपके प्रति मेरी कितनी ही दुर्बलता हो, पर इतनी अधोगति को नहीं पहुँची है कि मैं अपने भाई और पिता की ओर, दुनिया को उँगली उठाने का मौक़ा दूँ| सीमा के ये द्रोहात्मक विचार प्रेमशंकर के चित्त को मथने लगा| उसकी वाणी जवाब देने के लिए व्याकुल हो उठी| 

उसने मन ही मन कहा ----पता नहीं क्यों, सारा दोष मेरे ही सिर रखती है ? फिर सोचा, मुझे यह वाक्-प्रहार नहीं करना चाहिए, क्योंकि मैं थोड़े ही दिन बाद उसके ह्रदय का स्वामी बनूँगा| बोदा, साहसहीन, निरा-बुद्धू , न जाने क्या-क्या उसने कहा ? रूठना मुझे चाहिए, उल्टे वही रूठ गई| 

एक शाम, सीमा किन्हीं ख्यालों में मग्न अपने दरवाजे पर खड़ी थी, इतने में प्रेमशंकर आकर उसके सामने खड़ा हो गया| सीमा पर मानो बिजली गिर गई, वह गिरती-पड़ती अपने कमरे में भाग गई, और भीतर जाकर एक कोने में खड़ी हो गई| भय से उसका रोम-रोम काँप रहा था| प्रेमशंकर कुछ देर मूर्तिवत खड़ा उसे देखता रहा, फिर जाने लगा| उसे जाता देख सीमा का भग्न ह्रदय, हताश हो कहा---- क्या हुआ, अभी आये, अभी चले, तो आये ही क्यों? 

प्रेमशंकर व्यंग्य भाव से कहा --- बिन ब्याही कन्या से एक गैर मर्द का मिलना-जुलना पाप है, मगर दुःख है कि इस परम्परागत नियमों को तोड़ने के लिए जिस ज्ञान की जरूरत है, वो तो मेरे पास है नहीं| 

सीमा प्रतिभा और सौम्य की सजीव मूर्ति बनी, बोली--- लेकिन मेरे पास तो है!

प्रेमशंकर अचंभित हो पूछा--- वह क्या है?

सीमा शर्माती हुई बोली----पहले तो आप यह बताइये कि अंदर से झुलस रहे देह को पानी चाहिए या चबेना|

प्रेमशंकर झट से बोल पड़ा---- पानी|

सीमा , मुस्कुराती हुई कही-----तो दो न, यह ह्रदय-दाह बड़ा घातक होता है| इस दाह में, आँख का आँसू तक सूख जाता है| देरी, विरक्ति, और मलीनता का रंग फेर देता है| प्रेमशंकर के चित्त पर सीमा के कोमल भाव और रहस्यमयी बातों का आकर्षण होने लगा| सीमा का विकसित लावण्यमयी सौन्दर्य, उसे अपनी ओर खींच रहा था और वह पतंग की भाँति धीरे-धीरे सीमा की ओर बढ़ते चला आ रहा था| एक वक्त ऐसा आया, कि दोनों एक जगह आकर खड़े हो गए, तभी,  सीमा बोल पड़ी------ प्रेमशंकर ! पहले मेरे पिताजी से बात करो!

प्रेमशंकर के घर किसी बड़ी, बूढी औरतों के न होने के कारण, उसने खुद से, सीमा के पिता से, सीमा का हाथ माँगने पहुँच गया| सीमा के पिता अखबार पढ़ने में मशगूल थे, मगर उन्हें लगा कि कोई यहाँ है? उन्होंने नजर उठाकर देखा---- प्रेमशंकर खड़ा है : प्रेमशंकर कुछ कहता, उसके पहले वे बोल पड़े--- तो सीमा को कब अपने घर ले जाना चाहते हो?

प्रेमशंकर आश्चर्यचकित होकर कहा--- मैं प्रेमशंकर, सीमा का हाथ- - - पूरा बोल भी नहीं सका था कि सीमा के पिता बोल पड़े------ परसों शुभ मुहूर्त है, बरात लेकर आ जाओ, और सीमा को ले जाओ| मेरा आशीर्वाद तुम दोनों के साथ है|

सीमा के ह्रदय में भावी उन्नति की बड़ी-बड़ी आशाएँ थीं| वह अपने परिवार को सम्मान के शिखर पर पहुँचाना चाहती थी, मगर प्रेमशंकर की सोच ‘सीमा’ से उलट थी| उसके विचार में संयम और नियम, दोनों ही मानव चरित्र के स्वाभाविक विकास के बाधक हैं| इसलिए मानव को, स्वतंत्र होकर जीना चाहिए| इच्छाओं का दमन करना, आत्महत्या के समान है| 

         एक दिन प्रेमशंकर संध्या समय बड़े ही चिंतित भाव से, सीमा से कहा --- सीमा! अभी हमलोग जवान हैं, स्वस्थ हैं, हम इस जीवन के लू-लपट को सहने में सक्षम हैं, लेकिन सदा के लिए, परिस्थितियाँ ऐसी नहीं रहेंगी| एक दिन हम दोनों बूढ़े और कमजोर हो जायेंगे, तब हमें सहारे की जरूरत होगी, तब कौन आगे आयेगा? यह चिंता मेरे प्राण को सोख लेती है| सीमा, पति के भविष्य-सतर्कता को स्वीकारती हुई बोली---- प्रेमशंकर! मैं जो आगे कहने जा रही हूँ, उसका मनोनुकूल अर्थ मत लगाना| प्राणी मात्र का यह स्वभाव है कि अंतरिक्ष की व्याकुलता की कड़कड़ाहट जब सुनता है, तब आश्रय की खोज में भाग-दौड़ शुरू करता है, पहले से क्यों नहीं? पर मुझे तुम्हारी भविष्य-चिंता पर ख़ुशी हो रही है, क्योंकि भय की पराकाष्ठा का ही दूसरा नाम साहस है|

फिर करुणाद्र होकर बोली--- प्रेमशंकर ! यह जगत अनंत ज्योति से प्रकाशमय है| उसका एक-एक परमाणु उसी ज्योति से आलोकित है, लेकिन एक माता-पिता के ह्रदय को लाखों सूरज मिलकर भी प्रकाशमय नहीं कर सकता, उसका सूरज तो उसका पुत्र होता है| जानते हो--- अभी मेरा पुत्र, मेरे साथ नहीं है| उसे मैंने कभी सपने में भी नहीं देखा है, बावजूद हर वक्त वह मेरे साथ रहता है| उसकी स्मृतियाँ मेरे ह्रदय कोष का रत्न है, जिसे मैं हमेशा अपने कुटिल आकांक्षाओं से बचाकर रखती हूँ| उसकी स्मृतियों की पवित्रता और सत्यता मेरी रक्षात्र है, आत्मगौरव का पोषक है और धैर्य का आधार है| मैं उसके लिए, सोते-जागते अपनी आकांक्षाओं के उच्च शिखर पर चढ़कर, आँचल फैलाकर दुआएँ माँगती हूँ, कहती हूँ--- हे देव! अगर मैंने, ज़रा भी सुकर्म किया हो, तो उसका फल, मेरे आने वाले पुत्र को देना| मेरे हिस्से के बचे-खुचे सुख के दिन, उसके नाम कर देना, और सदा ही उसे सफलता के ज्योतिर्मय पर्वत पर बिठाये रखना|  

          शंकाओं और आशाओं के बीच भय की दशा में जी रही सीमा का भय, एक रात आशा से ऊपर चला गया| आधी रात बीत गई, उसकी खुद की बनाई शंकाएँ, उसकी नींद और पलकों के बीच आकर खड़ी हो गईं, जिससे उसकी पलकें, एक क्षण के लिए भी बंद नहीं हुईं| एक बार तो उसने सोचा, पास जल रहे कुप्पी को अगर बुझा दूँ, तब मेरी सभी शंकाएँ अँधेरे में मिट जायेंगी| उसने वैसा ही किया| कुप्पी को बुझा दिया; कुप्पी के बुझने के साथ घोर अंधेरा छा गया| धरती–आसमां की दूरी मिट गई, तब आँख होते अंधेपन का अनुभव कर सीमा डर गई| उसे लगा कि यह अंधेरा, देव-प्रेरित कोई बुरी चेतावनी है| इस अनिष्ट की आशंका से वह सिसक-सिसक कर रोने लगी| सीमा के सिसकने की आवाज सुनकर, पास सो रहे उसके पति, प्रेमशंकर जाग बैठे, और एक दीन प्रार्थी की तरह पूछे---- सीमा! तुम रो क्यों रही हो? तबियत तो ठीक है, भयातुर नेत्रों से जब छूकर देखा---- तो सीमा शिशिर के पत्ते की तरह काँप रही थी| उसने झटपट सीमा को अपने गले लगा लिया, और कहा---- सीमा, मुझे भी नहीं बताओगी, आखिर तुम्हारे यूँ रोने का कारण क्या है? 

सीमा रोती हुए बोली--- प्रेमशंकर! अपने घर आने वाले, जिस बच्चे पर मैं अपना सुख, शान्ति, सब न्योछावर करने तैयार बैठी हूँ| जानते हो, रात सपने में देखा---- एक निर्दयी पिचास, मेरे उस पुत्र का गर्दन पकड़कर उस पर छूरी चला रहा है| मैं अपने पुत्र को बचाने के लिए दौड़ी, मगर मेरे पाँव बंध गए, और मैं बचा न सकी; कहते हुए अचानक खड़ी हो गई, मगर ज्यों पानी में पैर फिसल जाता है, त्यों खड़ी होते ही सीमा धड़ाम से गिर गई, और पछाड़ खाकर रोने लगी| थोड़ी देर तक मूर्छित दशा में पड़ी रही| मूर्छा हटते ही, विपत्ति से बंधी हुई उसकी आँखें आने वाली विपत्ति की शंका से फिर तड़प उठीं, जिसे देखकर प्रेमशंकर चिंतित हो उठा| उसने कहा---- सीमा, जो चीज हमारे पास है ही नहीं, उसके चोरी जाने का सवाल कहाँ उठता है? इसलिए स्वप्न को स्वप्न ही रहने दो| इसे रिश्ते का नाम मत दो|

           प्रेमशंकर की ह्रदय विदारणी बातें सुनकर, वह फिर से मूर्छित हो गई| अकस्मात प्रेमशंकर के मन में यह विचार अंकुरित हुआ कि बदहवास सीमा को, क्यों नहीं एक स्वस्थ बच्चे की तस्वीर देकर उसे संतावना दी जाय, जिससे उसे विश्वास हो कि उसके पुत्र को कोई तकलीफ नहीं है| वह झटपट एलबम से एक हँसते हुए बच्चे की तस्वीर निकालकर ले आया और सीमा को दिखाकर कहा---देखो सीमा, यह कौन है? 

चित्र को देखते ही सीमा, अपने काँपते हाथों से प्रेमशंकर के हाथ से झपट्टा मारकर छीन ली, और छाती से लगाकर रोने लगी| इस आत्मिक आलिंगन से उसे एक विचित्र संतोष मिल रहा था| मानो, किसी ने उसके तड़पते ह्रदय पर मलहम लगा दिया हो| उस वख्त उसकी ह्रदय दुर्बलता इस दशा तक पहुँच गई थी, कि उस तस्वीर को उससे कोई छीन भी लेता, तो भी वह शोर नहीं मचाती; कारण वह तो अपनी मनोवृतियों को स्मरण करती हुई, आँखें बंद कर, इच्छाएँ उसे जहाँ ले जाना चाह रही थीं, वह वहाँ पहुँच गई थी; जहाँ न दुनिया थी, न दुनिया का दर्द था| अगर कुछ था, तो वह थी, और उसका पुत्र था|













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