Swargvibha
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हिन्दी उपन्यासों में चित्रित ग्रामीण समाज

 

डाo तरन्नुम बानो

 

भारत-जैसे कृषि प्रधान देश के लिए ,जहाँ लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या कृषि व्यवसाय में संलग्न है, ग्राम जीवन के अध्ययन की आवश्यकता बढ़ जाती है । देश की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के अध्ययन के लिए भी ग्राम जीवन के अध्ययन की आवश्यकता होती है। बदलते हुए परिवेश में गाँव क्या रूप ग्रहण कर रहा है? उसका भावी स्वरूप क्या होगा? इन सभी बातों का अध्ययन आवश्यक है। ग्रामीण समाजशास्त्री ग्रामीण समाज के अध्ययन के लिए क्षेत्रीय और प्रलेखकीय स्त्रोतों का आश्रय लेता है। साहित्य के प्रलेखकीय स्त्रोतों में उपन्यास में जीवन का व्यापक चित्रण होता है। अतः ग्रामीण समाजशास्त्री ग्रामीण जीवन के अध्ययन के लिए ग्रामजीवन पर आधारित उपन्यासों का आश्रय ग्रहण करता है। इस आलेख में प्रेमचंद युग से आठवें दशक तक हिंदी उपन्यासों में चित्रित ग्राम्य जीवन को पांच कालों में विभक्त करके संक्षेप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।


हिंदी उपन्यास का आरंभ उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से माना जाता है। हिंदी के आरम्भिक उपन्यास अत्यंत काल्पनिक थे।‘‘भारतेंदु काल में सामाजिक, ऐतिहासिक, तिलस्मी-ऐयारी, जासूसी तथा रोमानी उपन्यासों की रचना-परंपरा का सूत्रपात हुआ। यह परंपरा आगे चलकर द्विवेदी युग में अधिक विकसित और पुष्ट हुई ।’’1
सामाजिक जीवन की यथार्थ समस्याओं को लेकर उपन्यास लिखने की परंपरा प्रेमचंद युग से आरंभ हुई।
प्रेमचंदयुगीन हिन्दी उपन्यासों में अंकित ग्राम जीवन
प्रेमचंदयुग का समय 1918 से 1936 ई. तक माना जाता है। प्रेमचंदयुग में ग्राम जीवन पर प्रेमचंद के अतिरिक्त जयशंकर प्रसाद, सियारामशरण गुप्त, शिवपूजन सहाय, वृंदावनलाल वर्मा आदि ने प्रमुख या गौण रूप से लेखनी चलाई है। प्रेमचंद के ग्राम जीवन से संबंधित उपन्यासों में प्रमुख रूप से ‘प्रेमाश्रम’।1922।, ‘रंगभूमि’ ।1925।, कर्मभूमि’।1933। ,‘गोदान’ ।1936। का नाम लिया जाता है। प्रेमचंद के अतिरिक्त शिवपूजनसहाय के ‘देहातीदुनिया’ ।1926।, वृंदावनलाल वर्मा के ‘लगन’।1929।, सियारामशरणगुप्त के ‘गोद’।1932।, ‘अंतिम आकांक्षा’।1934।, जयशंकरप्रसाद के ‘तितली’।1934। आदि उपन्यासों में भी ग्राम जीवन अंकित हुआ है ।
इस युग के उपन्यासों में ग्राम जीवन के सामाजिक पक्ष के अंतर्गत समाज के विभिन्न वर्गों का चित्रण किया गया है। ‘गोदान’ में उच्च वर्ग के अंतर्गत जमींदार रायसाहब , पंडित दातादीन, सहुआइन, महाजन, झिंगुरीसिंह आदि आते हैं । इसी प्रकार ‘तितली’ में जमींदार इंद्रजीतकुमार, रंगभूमि’ में पूँजीपति जानसेवक, ‘देहातीदुनिया’‘ में जमींदार रामटहलहसिंह आदि उच्च वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं । निम्नवर्ग का प्रतिनिधित्व ‘गोदान’ उपन्यास का नायक होरी प्रमुख रूप से करता है जो उच्चवर्ग के शोषण के कारण किसान से मजदूर बन जाता है और अपनी छोटी सी अपूर्ण इच्छा, गाय खरीदने की इच्छा लिए मर जाता है ।
इस युग के उपन्यासों में ग्राम जीवन के सामाजिक समस्याओं के अंतर्गत उच्चवर्ग के लोगों द्वारा निम्नवर्ग के शोषण का प्रमुख रूप से चित्रण हुआ है । ‘प्रेमाश्रम’का गौसखाँ, ‘तितली’का तहसीलदार ऐसे ही कारिन्दे हैं । इसी तरह ‘कायाकल्प’ उपन्यास में राजा विशालसिंह से अधिक उनके मुन्शी और कारिन्दे गाँववाले पर अत्याचार करते हैं। ‘‘गालियाँ और ठोंक पीट तो साधारण सी बात थी, किसी के बैल खोल लिए जाते थे, किसी की गाय छीन ली जाती थी, किसानों के खेत कटवा लिए गये।’’2
शोषण के अतिरिक्त प्रेमचंदयुगीन उपन्यासों में अन्य सामाजिक समस्याओं का भी चित्रण हुआ है । जैसे -
छूआछूत, मूल्यहीनता, अनैतिक यौन समस्याएँ, ग्रामीणों के पारस्पारिक वैमनस्य, ईष्र्या, दूवेष, छल-कपट, जुआ, शराबखोरी इत्यादि। ‘प्रेमाश्रम’ में पारिवारिक समस्या के अंतर्गत संयुक्त परिवार विघटन का चित्रण हुआ है । जमींदार ज्ञानशंकर पारिवारिक झगड़े तथा स्वार्थ के कारण अपने चाचा प्रभाशंकर के परिवार से अलग हो जाता है। ‘गोदान’ में सामाजिक समस्याओं के अंतर्गत अछूतों की समस्या, दहेज समस्या, अनमेल विवाह, किसानों का शोषण, संयुक्त परिवार विघटन आदि समस्याओं का चित्रण हुआ है । ‘रंगभूमि’उपन्यास में सरल ग्रामीण संबंधों के स्थान पर छल, कपट, जुआ, शराबखोरी को प्रोत्साहन है।‘देहाती दुनिया’में भी गाँव में धोखा, फरेब, सास-बहू के झगडे़ आदि का चित्रण है। ‘तितली’उपन्यास में ग्रामीण जनता की निर्धनता, सरलता, स्वार्थपरता, दुर्बलता पर यथेष्ट प्रकाश डाला गया है।‘अंतिम आकांक्षा’में गाँव के डाके में मुखिया, थानेदार, तहसीलदार का शामिल होना ,गरीबों पर अत्याचार तथा ग्रामीण जीवन की अंधपरम्परा जातिभेद का चित्रण है।







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प्रेमचंदयुगीन उपन्यासों में जहाँ ग्राम्य-जीवन में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों का व्यापक चित्रण किया गया है वहीं इन समस्याओं के प्रति धीरे-धीरे विरोध का भी चित्रण हुआ है। इस युग के कई उपन्यासों में किसानों द्वारा अपने शोषकों के विरूद्ध आवाज उठाई गई है जो उस युग के गांधी जी के असहयोग आन्दोलन के प्रभाव का फल था। ‘प्रेमाश्रम’ उपन्यास के किसान बलराज अपने पसीने की कमाई के आगे जमींदार को भी कुछ नहीं समझता और कहता है, ‘‘जमींदार कोई बादशाह नहीं है कि चाहे जितनी जबरदस्ती करें और हम मुँह न खोलें। इस जमाने में तो बादशाह का भी इतना अख्तियार नहीं, जमींदार किस गिनती में हैं ।’’3
‘रंगभूमि’ उपन्यास में अंधा भिखारी सूरदास अपने अधिकार के लिए पूँजीपति जानसेवक से अंत तक संघर्ष करता है । गोदान’ में समाज की परवाह किए बिना होरी और धनिया बिन ब्याही माँ बनी झुनिया और सिलिया को शरण देते हैं ।‘कर्मभूमि’ में नायक अमरकांत द्वारा गाँव की निम्न जातियों में जागृति का प्रयास किया जाता है ।
अमरकांत के सहयोग से गाँव मे अस्पृश्यता निवारण, मद्यपान निषेध, मुर्दा मांस निषेध, सफाई शिक्षा प्रसार आदि पर बल दिया गया है ।
प्रेमचंदोत्तरयुगीन उपन्यासों में अंकित ग्रामीण जीवन ।193र्6 इ. से 1950 ई.तक।
प्रेमचंदोत्तर युग मंे मनौवेज्ञानिक उपन्यास धारा के साथ ही इस युग में ऐतिहासिक उपन्यास भी पर्याप्त मात्रा में लिखे गए। यही कारण है कि प्रेमचंदयुग के बाद से लेकर स्वतंत्रता की प्राप्ति तक हिन्दी में ग्राम जीवन पर अधिक उपन्यास नहीं लिखे गए। जो लिखे भी गए वे अधिक चर्चित नहीं हुए।
प्रेमचंदोत्तर जिन उपन्यासों में सीमित व विस्तृत रूप में ग्राम जीवन का अंकन हुआ है वे हैं ‘नारी’-सियारामशरण गुप्त-1937 ,‘सुघर गंवारिन’- लाला रामजीलाल वैश्य-1938, ‘विसर्जन’-त्रिवेणी प्रसाद-1939, ‘जूनिया’-गोविंदवल्लभ पंत -1940 ,‘गरीब’-जगदीश झा विमल-1941 ,‘जमींदार’ -प्रो. इंद्र विद्यावाचस्पति-1942, ‘जी जी जी’-पांडेय बेचनशर्मा उग्र-1943, ‘अंतिम बेला’-ओंकार शरद-1945, ‘महाकाल’अमृतलाल नागर-1947 आदि ।
‘विसर्जन’, ‘जमींदार’, ‘उसपार’, ‘सुघर गंवारिन’, ‘गरीब’ आदि उपन्यासों में जमींदार द्वारा किसान तथा निम्न जाति के लोगों पर अत्याचार किया जाता है ।
इस युग के उपन्यासों के ग्रामीण समाज में छुआछूत, प्रेम समस्या , अनमोल विवाह, विमाता समस्या, बहु पर ससुरालवालों का अत्याचार, नारी की विवशता आदि समस्याओं का चित्रण हुआ है । ‘नारी’ उपन्यास में जमुना के माध्यम से एक असहाय एवं विवश भारतीय नारी का चित्रण किया गया है । जी जी जी’ उपन्यास में गाँव के समाज जीवन में अनमेल विवाह के दुष्परिणाम का चित्रण हुआ है ।
जुनिया’ में कुमाऊँ के दीन, भूमिहीन समाज द्वारा शोषित डूर्मा ।अछूत। जाति की कथा है, जिसमें उच्च जाति के गुसाई वर्ग द्वारा निम्न जाति के डूर्मा से छुताछूत के व्यवहार के साथ-साथ उन पर अत्याचार किया जाता है । ‘जूनिया’ उपन्यास में डूमा जाति की जूनिया गुसाई वर्ग के अत्याचार के प्रति विद्रोह करती है ।‘नारी’ उपन्यास में पति द्वारा परित्यक्त निम्नवर्ग की जमुना पुनर्विवाह करने की ओर प्रेरित होती है । उसके इस पुनर्विवाह में उसके पुत्र हल्ली की भी सहमति है । सामाजिक अन्याय के विरूद्ध नई पीढ़ी के इस विद्रोह को गुप्त जी ने बड़ी मार्मिकता से उभारा है ।
छठे दशक के उपन्यासों में ग्राम जीवन का अंकन
छठे दशक के उपन्यासों में विशेषकर आँचलिक उपन्यासों में ग्राम जीवन का अंकन अधिक मात्रा में हुआ है। प्रमुख आँचलिक उपन्यासकारों में नागार्जुन , फणीश्वरनाथ रेणु , भैरवप्रसाद गुप्त, उदयशंकर भट्ट, वृंदावनलाल वर्मा आदि ने भी इस दशक में ग्राम-जीवनपरक उपन्यास लिखे हैं ।
‘बलचनमा’ उपन्यास में नागार्जुन ने मिथिला के ग्रामीण जीवन में देहात के भूमिजीवी श्रमिक के एक लड़के बलचनमा को विभिन्न परिस्थितियों में डालकर, सर्वहारा वर्ग की दलित एवं दयनीय अवस्था का यथार्थ चित्रण किया है ।
इस दशक के अधिकांश उपन्यासकारों ने नारी की दयनीय दशा का चित्रण किया है । नारी की यह दयनीय दशा कहीं विधवा के रूप में दिखाई गई है तो कहीं दहेज प्रथा के कारण अनमेल विवाह के रूप में । नागार्जुन के ‘रतिनाथ की चाची’ उपन्यास की चाची, ‘दुखमोचन’ उपन्यास की विधवा माया तथा भैरवप्रसाद गुप्त की ‘गंगा-मैया’ उपन्यास के गोपी की भाभी विधवा विवाह की समस्या से ग्रस्त थी । विधवा समस्या के साथ नागार्जुन ने अपने उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची’ में दहेज प्रथा के दुखद परिणाम के फलस्वरूप अनमेल विवाह की समस्या को भी उठाया है ।







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औद्योगिकीकरण तथा नगरीय प्रभाव के कारण ग्रामीण समाज में संयुक्त परिवार का विघटन प्रारंभ हो गया है ‘‘परती-परिकथा’।फणीश्वरनाथ रेणु। उपन्यास में संयुक्त परिवारों की टूटन व्याप्त है । इस टूटन के पीछे मुख्यतः आर्थिक कारण ही है, बाकी अन्य सामाजिक कारण गौण है ।
इस दशक के उपन्यासकारों ने ग्राम जीवन में व्याप्त सामाजिक समस्याओं में सुधार लाने का प्रयास अपने उपन्यासों के माध्यम से किया है । नागार्जुन, भैरवप्रसाद गुप्त आदि ने अपने उपन्यास की विधवा नारी की समस्या
का समाधान उनके पुनःर्विवाह के रूप में दिखाया है ।‘दुखमोचन’ ।नागार्जुन। उपन्यास में गाँव का माहे अन्य युवकों को मिलाकर एक संगठन बनाता है । वे गाँव की लड़की बिसेसरी की शादी बूढ़े के साथ न होने देने के लिए संकल्प करते है तथा उसका विरोध करते हैं ।
‘बलचनमा’।नागार्जुन। उपन्यास का नायक बलचनमा ने उच्चवर्ग के हाथों अनेक कष्ट सहे हैं, किंतु अब वह अन्य कष्ट सहने को तैयार नहीं है । वह कहता है, ‘‘बेशक! मैं गरीब हूँ, तेरे पास अपार संपदा है , कुल है , खानदान है, बाप-दादे का नाम है, अपनी सारी ताकत तेरे विरोध में लगा दूँगा ।’’4
सातवें दशक के हिंदी उपन्यासों में अंकित ग्रामीण जीवन
सातवें दशक के ग्राम जीवन से संबंधित हिंदी उपन्यासों में रामदरश मिश्र कृत ‘पानी के प्राचीर’, ‘जल टूटता हुआ’. हिमांशु श्रीवास्तव कृत ‘नदी फिर बह चली’, राही मासूम रजा कृत ‘आधा गाँव’, शिवप्रसाद सिंह कृत ‘अलग-अलग वैतरणी’ श्रीलाल शुक्ल कृत ‘राग दरबारी’ आदि का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है जिनमें ग्रामीण जीवन का व्यापक चित्रण किया गया है ।
सातवें दशक के हिंदी उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में ग्राम जीवन के आंचलिक परिवेश, ग्रामीणों के रहन-सहन, बनते-बिगड़ते संबंध आदि का अत्यंत यथार्थ चित्रण किया है ।
‘राग दरबारी’ उपन्यास का शिवपालगंज गाँव स्वातंत्र्योत्तर भारत के विकृत और पतनोन्मुख गाँव का प्रतीक बनकर हमारे समक्ष आता है । ‘नदी फिर बह चली’ उपन्यास बिहार के छपरा अंचल के संपूर्ण ग्राम परिवेश को अंकित करता है । ‘आधा गाँव’ उपन्यास में गाजीपुर जिला स्थित गंगौली गाँव के एक हिस्से के शिया मुसलमान परिवारों की परंपरागत मान्यता, विश्वास, जीवन प्रथा, सुख-दुख, प्रेम-घृणा आदि बातों का सूक्ष्मता से अंकन किया गया है । इसी प्रकार ‘अलग-अलग वैतरणी’ उपन्यास में उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्र में स्थित करैता गाँव का तथा ‘पानी के प्राचाीर’ उपन्यास में उत्तर प्रदेश के ही गोरखपुर जिले के पांडेपुर गाँव के ग्रामीण अंचल और उसकी जनता के सुख-दुख, राग-द्वेष, उदारता-संकीर्णता, शक्ति-सीमा, प्रकृति-विकृति का अत्यंत यथार्थ चित्रण किया गया है।
ग्रामीणों के सरल सामाजिक परिवेश में इस युग में भी जटिल समस्याएँ दृष्टिगोचर होती हैं जैसे- संयुक्त परिवार विघटन, वैवाहिक समस्याओं के अंतर्गत बाल विवाह, विधवा विवाह समस्या, दहेज प्रथा, अनमेल विवाह, पति-पत्नी संबंधों में तनाव आदि सामाजिक समस्याओं का चित्रण किया गया है ।
‘जल टूटता हुआ’ उपन्यास की बदमी तो उसी उम्र में विवाह के बंधन में फँस गई थी जब उसे यह भी मालूम नहीं था कि शादी-ब्याह का क्या मतलब होता है । बाल विवाह के दुखद परिणामस्वरूव उसे वैधव्य जीवन का भार ढोना पड़ा । ‘पानी के प्राचाीर’ उपन्यास की विधवा गेंदा की स्थिति अत्यंत दयनीय है
इसी तरह ‘जल टूटता हुआ’ उपन्यास में जीवन के अभावों में फँसा मास्टर सुग्गन तीन-चार साल से अपनी लड़की के लिए वर की तलाश में व्यस्त है लेकिन कहीं बात जम नहीं पाती। दहेज प्रथा के विषय में सोचता हुआ वह ठीक ही कहता है, ‘‘जो लड़का जितना पढ़ा-लिखा मिलता है उसका भाव आज उतना ही तेज है । लगता है आज के समाज के लोगों की शिक्षा और प्रतिष्ठा केवल दहेज लेने तक सीमित है ।’’5
शहर की भाँति अब गाँव में भी पति-पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-भाई आदि रिश्तों में तनाव दिखाई देने लगा है।‘राग दरबारी’ उपन्यास में रूप्पन और छोटे पहलवान अपने-अपने पिता के प्रति कटु हैं। ‘अलग-अलग वैतरणी’की कनिया का अपने पति बुझारथ सिंह के साथ बड़ा तनावपूर्ण संबंध है।
अब ग्रामीण स्त्रियाँ अपने अधिकारों के प्रति सजग हो रही हैं तथा सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय भाग लेने लगी हैं । नदी फिर वह चली’ उपन्यास की अनाथ लड़की परबतिया किसान मजदूर की नेता बनती है और पूँजीवाद के संघर्ष में उनका मार्गदर्शन करती है । ‘पानी के प्राचीर’ उपन्यास की विधवा गुलाबी अपने पति के मरने के पश्चात् गाँव के बैजू पंडित को अपना बनाती है।
ग्रामीण स्त्रियों में शिक्षा के प्रति सजगता भी दिखाई देने लगी है‘आधा गाँव’ उपन्यास में अग्गूमियाँ की लड़की सईदा तथा ‘पानी के प्राचाीर’ की संध्या अधिक पढ़ाई करने के लिए शहर जाती है ।
गाँव में सामाजिक सुधार आज की पीढ़ी द्वारा ही संभव है । ‘पानी के प्राचीर’ उपन्यास के पांडेपुर गाँव में सामाजिक विकास लाने हेतु नवयुवक संघ बनाने की ओर प्रेरित होते हैं ।






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आठवें दशक के हिंदी उपन्यासों में अंकित ग्रामीण जीवन
आठवें दशक के ग्राम जीवन से संबंधित हिंदी उपन्यासों में रामदरश मिश्र का ‘सूखता हुआ तालाब, शिवकरणसिंह का अस गाँव पस गाँव’ , जगदीशचंद्र का ‘धरती धन न अपना’, मधुकांत का ‘ गाँव की ओर’ आदि का नाम लिया जा सकता है ।
आठवें दशक के उपन्यासों में भी ग्रामीण समाज में विविध जातियों का उल्लेख किया गया है।‘अस गाँव पस गाँव’ उपन्यास के मनोरथपुर गाँव में पाँच पूरे थे और सभी पूरों में विशेष जाति के लोग बसते थे गाँव में ब्राह्मण, क्षत्रिय, हरिजन और अहीर लोगों की संख्या अधिक थी ।
आज भी ग्रामीण समाज में यदि कोई बिरादरी विरूद्ध कार्य करता है तो उसे बिरादरी से बहिष्कृत कर दिया जाता है । ’सुखता हुआ तालाब’ उपन्यास में शामलाल और मोतीलाल अपने दुश्मन देवप्रकाश को अपनी आपसी ईष्र्या के कारण इलजाम लगाकर उसे व उसके परिवार को समाज व जाति से बहिष्कृत कर देते हैं ।
जाति के आधार पर ऊँची जाति के लोग निम्न जातियों पर अत्याचार करते हैं।‘धरती धन न अपना’ उपन्यास में ऊँची जाति के जमींदार हरिजनों पर अनेक अत्याचार करते हैं । ऊँची जातियों के कुएँ नीच जातियों के कुएँ से दूर होते हैं जहाँ निम्न जाति के लोग पानी नहीं भर सकते ा
ऊँची जातियों के इस शोषण से तंग आकर ही नीच जाति के लोग अपना धर्म परिवर्तन करने पर मजबूर
हो जाते हैं । इस उपन्यास मे चमार जाति का नंदसिंह ऊँची जाति के अत्याचार व शोषण से तंग आकर
पहले सिक्ख तथा बाद में ईसाई हो जाता है । इस प्रकार की छुआछूत के दृश्य ‘सूखता हुआ तालाब’ उपन्यास में भी दिखाई देते हैं ।
बाल विवाह, अनमेल विवाह, दहेज प्रथा, विधवा विवाह आदि समस्याएँ गाँव में आज भी विराजमान हैं दहेज प्रथा की समस्या का चित्रण ‘ अस गाँव पस गाँव’ उपन्यास में भी किया गया है ।
सामाजिक चेतना की दृष्टि से इस दशक के कई उपन्यासों में वर्ग संघर्ष, बिरादरी बहिष्कार, दहेज प्रथा विरोध आदि का वर्णन किया गया है । सूखता हुआ तालाब’ उपन्यास में जब बिरादरी देवप्रकाश को परिवार सहित बहिष्कृत कर देती है तब वह अपने समाज व बिरादरी की परवाह किए बिना स्वच्छंदता से अलग जीवन व्यतीत करता है । ‘धरती धन न अपना’ उपन्यास में निम्न जाति के लोग कालीचरण के नेतृत्व में जमींदारों से अपने अधिकार के लिए संघर्ष करते हैं ।
‘अस गाँव पस गाँव’ उपन्यास में जब बबुआन लोग चमारों को धमकी देते हुए अभी मारनेके लिए बढ़ रहे होते हैं, ‘‘तब तक बड़कऊ की अगुआई में कई हरिजन बबुआनों पर टूट पड़े और उन्हें सोपाहने लगे । लगता था कि हरिजन आज सूद सवारी समेत जनम भर के अन्याय का बदला चुका लेना चाहते थे । अब तक बबुआन घायल होकर जमीन पकड़ चुके थे और हरिजन उन्हें गाय-गोरू की तरह पीट रहे थे ।’’6
इस उपन्यास में गाँव का नवयुवक लल्लू अपने विवाह में बड़े भाइयों द्वारा लड़कीवालों से दहेज की माँग का विरोध करता है


संदर्भ- ग्रंथ सहायक ग्रंथ
1.डाॅ. नगेंद्र-हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 472 1 डाॅ. ज्ञानचंद गुप्त, स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास और ग्राम चेतना
2.प्रेमचंद-कायाकल्प, पृ. 130 अभिनव प्रकाशन, दिल्ली, 1974
3.प्रेमचंद-प्रेमाश्रम, पृ. 45 2 डाॅ. ज्ञान अस्थाना, हिंदी उपन्यासों में ग्राम समस्याएँ
4.नागार्जुन-बचलनमा, पृ. 74 जवाहर पुस्तकालय, मथुरा, 1979
5.रामदरश मिश्र-जल टूटता हुआ, पृ. 22
6,शिवकरण सिंह-अस गाँव पस गाँव, पृ. 157

 

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