जब मैं थी बच्ची एक छोटी
बडा होनेकी चाह थी बडी.
थी कुछ कर जाने की आस,
ख्वाब थे , आशा थी मेरे पास.
अब जब हो गई हूँ मैं एक महिला
कल का ख्वाब है बडा धुंधला.
नहीं चाहता कोइ भी बूढा हो जान,
सबको युवावस्था मेँ ही है सब कुछ पाना.
मैं भी हूँ इस भीड का एक हिस्सा,
जिसे पाने की है प्रबल इच्छा.
बहुत हद तक पीकर भी बुझी नहीं है प्यास,
सागर पाकर भी होता अधिक पाने का आभास.
इस “सब कुछ” मेँ क्या-क्या है आता
अच्छा होता ये सब एक चीज़ मैं समाता.
ना कही जाना पडता ना कुछ करना पडता
एक ही चीज़ मैं सब कुछ! कितना मज़ा आता.
उस एक चीज़ को जेब मैं डालकर
घूमती फिरती मैं रानी बनकर.
पास हैं अमूल्य चीज़ेँ और खूब दोस्त
पर दूर नहीं कर पाती एकाकीपन ये चीज़ेँ उपरोक्त.
शायद मरने के बाद ही वह चीज़ मिलेगी,
लेकिन मरने की अभी हुई नहीं अनुभूति.
होती अगर मेरे पास लाएफ टू डैथ मशीन,
सबको बता देती मरणोपरांत मरने के बाद का सीन.
Dr. Timple Sughandh
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