एक जौहरी ने प्यार से मुझे बनाया,
सुंदर रूप पाकर मैं खूब इतराया।
मैं था जौहरी का रत्न सबसे अनमोल,
सभी के होते केवल प्रशंसा के बोल।
फिर एक दिन ऐसा भी आया,
जब मैंने अपना सुहाना रूप गँवाया।
गिरकर नीचे हो गया मैं धूमिल,
और हो गया कौड़ियों के पत्थरों में शामिल।
करता था मैं अपने जौहरी को याद,
किस-किस से नाकी मैंने फरियाद।
समय इस रफ्तार से बीत गया,
जौहरी का रूप भी जैसे धुंधलाया ।
फिर आई कहीं से एक दिन तेज़ चमक,
धूल के बीच मेरे काया गई दमक।
उसी जौहरी को अपने सामने पाकर,
लगा की अब न खानी पड़ेगी कोई भी ठोकर।
चल रहा था जब मैं जौहरी के संग,
उसे बताया की हुआ था मैं कितना दंग।
अब उसने मुघे फिर से है चमकाया,
और मुकुट के लायक है बनाया।
डॉ टिंपल सुघन्ध।
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