Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मैं , मंदिर की मूर्ति।

 

न जाने कितना समय बीत गया,
की उसी मंदिर में हूँ मैं खड़ा।
रोज़ सुबह वह वृद्ध पुजारी आता,
उसी पूजन को रोज़ है दोहराता।
तुम्हारी केवल भावन की है मुझे चाह,
लेकिन इस मेहनत को भी मैं कराता वाह।
होती अगर मुझ में चेतना,
चाहता मैं तुम्हें गले से लगाना।

 

देखकर भक्त जनों की लंबी कतार,
निकलती है दिल से दुआ बार-बार।
न नंगे पाँव , न कड़ी धूप वो देखते,
केवल भक्ति भाव से खींचे चले आते।
देखकर यह भावना मुझे बड़ा रहम है आता,
केवल तथास्तु कर मैं खड़ा हूँ रहता।

 

कैसे कैसे दुखों से हैं सब जूझ रहे,
मेरा हृदय सबसे केवल यही कहे,
चाहे कैसी भी हो विषम परिस्थिति,
रहो स्थिर, घबराओ न तनिक भी।
किसी का बेटा मारा, तो किसी का डूबा पैसा,
लेकिन समझो ! जीवन का खेल है ही ऐसा।

 

मैं भी हो जाता हूँ बहुत ही विचलित,
देखता हूँ जब भी मैं तुम्हें भ्रमित।
यद्यपि हूँ मैं एक साधारण मूर्ति,
पर मेरी मंद मुस्कुराहट में है बहुत ही शक्ति।
करके तो देखो मुझे विषमता में भी याद ज़रा,
पाओगे मुझे किसी न किसी रूप में अपने पास खड़ा।

 

मैं हूँ ऐसा नाविक कुशल,
ले आऊँगा फंसी नांव को बाहर होकर सफल।
जब ली है सारी ज़िम्मेदारी तुम्हारी,
फल देने की अब मेरे है बारी।
जिस ईश्वर को माना है तुमने पिता,
केवल विश्वास रखना उसपर सदा।

 

 

डॉ टिंपल सुघन्ध।

 

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