मैं, हर पल
अपने सामने खड़ी देखता हूँ उसे
बिल्कुल समीप, बहुत ही करीब
देखने में मेरी तरह, पर अजीब
एक दिन--
मैंने उससे पूछा,
क्यों करती हो मेरा पीछा
वह हँसी--
मैं नहीं करती तेरा पीछा
मैं तो तेरे साथ चल रही हूँ ।
जब से तू जन्मा है--
तभी से हूँ तेरे साथ
और रहूँगी तबतक
जबतक तू मेरे भीतर न समा जाता।
पचास वर्ष सात महीने और तेइस दिन
उस रात मैं अकेला था
मुझे लगा कोई नही आसपास
मैं डरा, सहमा, और
नींद की गोलियाँ खा ली
मुझे याद है रात के दो बजे थे
घड़ी की टिक टिक सुनाई दे रही थी
और मैं दर्द से कराह रहा था।
वह मुस्कुरा रही थी-
मुझे और करीब बुला रही थी।
मेरे सामने उसका
आकार बढ़ता गया-और मै
उसमें समाता गया।
फिर एक पल में
मैं उसमें विलीन हो गया
फिर तो न मैं था
और न वह थी।।।
--डॉ. अकेलाभाइ
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