Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बचपन की यादें

 

याद बहुत आते है गुल्ली-डण्डों वाले दिन.
चुपड़ी रोटी, खो-खो, शाखा, झण्डों वाले दिन….

एक टांड़ में आसमान को गुल्ली चूमे जिसकी,
उसके आते पस्त सभी थे ढीली नेकर खिसकी,
गेंदतड़ी औ धनुष-तीर सरकंडों वाले दिन,
चुपड़ी रोटी, खो-खो, शाखा, झण्डों वाले दिन…..(१)

दिन भर खेलें चौका मारें मजेदार यह फंडा,
पीछे आकर पापा धर दें बड़े जोर का डंडा,
कसरत-वर्जिश याद सभी मुस्टंडों वाले दिन
चुपड़ी रोटी, खो-खो, शाखा, झण्डों वाले दिन…..(२)

रिमझिम-रिमझिम सावन बरसे भीगें बारी-बारी,
तैर रहीं कागज़ की नावें चींटा करे सवारी,
खोल तोड़कर निकले चूजे अण्डों वाले दिन
चुपड़ी रोटी, खो-खो, शाखा, झण्डों वाले दिन…..(३)

कच्ची अमिया, जामुन के चक्कर में हम दीवाने,
लिये गुलेलें फिरते रहते बागों में मस्ताने,
रखवालों से बचने के हथकंडों वाले दिन,
चुपड़ी रोटी, खो-खो, शाखा, झण्डों वाले दिन…..(४)

गुड़िया, रानी, सीमा, के संग खेलें आइस-पाइस,
दिल की चाहत प्यारी-प्यारी मिलती अपनी च्वाइस,
घाट-घाट का पानी पीते पंडों वाले दिन,
चुपड़ी रोटी, खो-खो, शाखा, झण्डों वाले दिन…..(५)

मजमा लगा कचेहरी जादू भीड़ देखती सारी,
आरी से काटे इक लड़की हँसता हुआ मदारी,
देख कलेजा दहल रहा दो खण्डों वाले दिन,
चुपड़ी रोटी, खो-खो, शाखा, झण्डों वाले दिन…..(६)

चार आने में दो सुहाल थे चार आने की टिक्की,
दस पैसे में मिले पकौड़ी आठ आने में चिक्की,
चाट चाटते आलू घुइयाँ-बंडों वाले दिन,
चुपड़ी रोटी, खो-खो, शाखा, झण्डों वाले दिन…..(७)

रामसनेही की नौटंकी नाटक मेले वाले,
मस्त छमाछम छमिया नाचे झूम रहे दिलवाले,
नानी-दादी के अनेक पाखंडों वाले दिन,
चुपड़ी रोटी, खो-खो, शाखा, झण्डों वाले दिन…..(८)

फूलों पर तितली मँड़राती मस्त देख ललचाते,
चुपके-चुपके उनके पीछे दबे पाँव थे जाते,
उन्हें पकड़ने की तिकड़म औ फंडों वाले दिल ,
चुपड़ी रोटी, खो-खो, शाखा, झण्डों वाले दिन…..(९)

मीठे-मीठे गन्ने चूसें हम सब मिलकर सारे ,
दाल-भात घी दूध दही सब व्यंजन कितने प्यारे ,
माँ के आँचल में छिप जाते ठंडों वाले दिन,
चुपड़ी रोटी, खो-खो, शाखा, झण्डों वाले दिन…..(१०)

उड़ती अपनी चले साइकिल उस पर करें सवारी,
सत्तू खाते मन बहलाते बढ़ती जाती यारी,
बाटी चोखा की चाहत में कंडों वाले दिन,
चुपड़ी रोटी, खो-खो, शाखा, झण्डों वाले दिन…..(११)

एक्क्ल दुक्कल कंचे लट्टू खेलें मिलकर सारे,
आसमान में कटें पतंगें लूटें चढ़ें उतारें,
सुरबग्घी रेड़ी से खेलें रंडों वाले दिन,
चुपड़ी रोटी, खो-खो, शाखा, झण्डों वाले दिन…..(१२)

लिल्ली घोड़ी झूम झूम कर ठुमके मस्त लगाती,
शक्कर-पूड़ी खाते खुश हो बागों में बाराती,
सिर रख पेट्रोमेक्स जलाते हंडों वाले दिन,
चुपड़ी रोटी, खो-खो, शाखा, झण्डों वाले दिन…..(१३)

हिप्पी जैसी जुल्फें चाहें बेलबाटम था प्यारा,
आवारा-नालायक घर में खुद को कहाँ सुधारा,
नहीं भूलते ‘अम्बर’ शान-घमंडों वाले दिन,
चुपड़ी रोटी, खो-खो, शाखा, झण्डों वाले दिन….(१४)
याद बहुत आते है गुल्ली-डण्डों वाले दिन……….

–इंजी ० अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’


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