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आशुकवि नीरज अवस्थी को श्रद्धांजलि

 
आशुकवि नीरज अवस्थी को श्रद्धांजलि


आज सुबह-सुबह ही एक दिल दहला देने वाला समाचार मिला। 
आशुकवि नीरज अवस्थी खमरिया नहीं रहे। 
काव्य रंगोली के संपादक! 
कानों पर विश्वास नहीं हो रहा! 
यह कैसे हो सकता है! विधाता इतना क्रूर तो नहीं हो सकता! और अगर हो सकता है तो वह विधाता भी कैसा विधाता है! 
समझ नहीं आ रहा किसे दोष दूँ? किसे कोसूँ ? 
अपने दुर्भाग्य को या विधाता के विधान को? 
या दोनों को? 

आप मेरे, मेरे पिता और मेरे परिवार के कितना समीप थे! 
मेरे पिता और मेरे पितामह के साहित्यिक अवदानों पर कितनी अगाध श्रद्धा थी आपकी! 
मुझ पर कैसा अनन्य स्नेह था आपका!
मैं ही नहीं मेरा संपूर्ण परिवार आपके इस महाप्रस्थान पर विचलित और शोक मग्न है। 

आप कितनी योजनाएँ बनाया करते थे, कितने सुझाव दिया करते थे कि बसंत पंचमी का कार्यक्रम अगली बार इस तरह से किया जाएगा, इन्हें इन्हें आमंत्रित किया जाएगा, इन्हें इन्हें सम्मानित किया जाएगा;
 कहाँ क्या जोड़ना है, कहाँ क्या घटाना है, कहाँ क्या नया करना है, कहाँ क्या पुराना ही चलाते रहना है, इन सब विषयों पर आपका दृष्टिकोण कितना सार्थक, कितना समीचीन और कितना व्यावहारिक होता था।

कल ही मैं और दादा संजीव मिश्र 'व्योम', पिताजी के साथ बैठकर पंडित बंशीधर शुक्ल स्मारक निर्माण एवं साहित्य प्रकाशन समिति की नवीनीकरण की रूपरेखा तैयार कर रहे थे। पिताजी ने अभी कल ही तो आपको समिति में एक अत्यंत महत्वपूर्ण पद का दायित्व सौंपने का विचार बनाया था।
पर यह क्या! पिताजी अपने 85 वर्ष के वृद्ध कंधों पर से  जो गुरु दायित्व उठाकर आपके पुष्ट और युवा कंधे पर रखना चाहते थे उनका वह सपना कैसे अप्रत्याशित रूप से पलक झपकते टूट गया। 
उनके दुख का भी ओर छोर नहीं है! 

आपका सहयोग, आपकी तत्परता और आपकी उपादेयता जीवन की अंतिम सीमा तक बिसारे नहीं बिसरेगी। 
आपकी उस प्रगाढ़ निष्ठा का ऋण उतारने हम कहाँ जाएँगे? 

विनाशकारी कोरोना! 
तूने हमें बहुत जख्म दिये हैं परंतु उन जख्मों में यह जख्म सबसे गहरा है।
साहित्य जगत पर यह आघात बेहद प्रचंड है! 

नीरज दादा को अभी कितने महत्वपूर्ण कार्य करने थे! 
साहित्य की कितनी प्रचुर सेवा करनी थी! 
कितनी नवीन प्रतिभाओं को मंच देना और उन्हें प्रकाश में लाना था! 
वह काव्य रंगोली जो आपकी कर्मण्यता का सबसे सशक्त उदाहरण थी, 
वह काव्य रंगोली जो आपके विराट पुरुषार्थ की सजीव परिचायक थी,
 आज अपनी छत्रहीनता पर आँसू बहा रही है, क्या उसे ढाढस और धीरज बँधाने नहीं आओगे? 
उसके सिर से उसके जनक के साए का इस तरह से उठ जाना उसे स्तंभित करने वाला है।
 हर कोई स्तब्ध है! हर कोई अवाक् है! 
कलम उठती है और रुक जाती है। 
शब्द सीमित है परंतु वेदना अनंत है। 
आपने अपने अल्प जीवन में साहित्य की जो दीर्घ सेवा की वह अविस्मरणीय है। 
समय के भाल पर आपके हस्ताक्षर युगों के लिए इस तरह अंकित हो गए हैं कि पीढ़ियाँ उनसे अनंत काल तक प्रेरणा ग्रहण करेंगी। 

तनाव से विरहित मुखारविंद वाले माँ भारती के निष्काम आराधक! 
हर बात का जवाब मुस्कुरा कर देने वाले प्रदीप्त लेखनी के संवाहक! 
सभी को यथोचित सम्मान देने वाले काव्य रंगोली के अनाग्रही संपादक! 
हमारे विशेषणों की अल्पज्ञता को अपनी चिर परिचित उदारता के साथ ग्रहण करना! 
आपकी अजर, अमर और अक्षय यशःकाया को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि निवेदित!!! 

आपका अनुज
 गौरव शुक्ल 
मन्योरा 
लखीमपुर खीरी 


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