Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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आज फिर बारिश हुई

 
आज फिर बारिश हुई, बिखरा दिए क्या केश तुमने?


आज फिर बारिश हुई, बिखरा दिए क्या केश तुमने? 
                           (1)
फिर सुबह से ही घटाओं ने   घुमड़ आकाश  घेरा, 
छिप गया सूरज, धरा पर    छा गया जैसे अँधेरा। 
वायु शीतल फिर   नसों में लग   गई रोमांच भरने,
राग में तन्मय प्रकृति हो फिर लगी सजने-सँवरने। 

फिर लगी चपला चमकने,    शोर अंबर में मचाती,
आ गया साकार होकर फिर मदन निज व्यूह रचने। 

आज फिर बारिश हुई, बिखरा दिए क्या केश तुमने? 
                               (2)
तुम छिपी हर उस जगह हो, है जहाँ सुषमा जगत में, 
तुम समाहित हो समूची   सृष्टि के इति और अथ में।
है जहां आनंद बिखरा,    तुम वहाँ पर हो उपस्थित, 
है जहां उल्लास जीवन में,   वहाँ तुम हो सुशोभित। 

बाँसुरी की तान में तुम, हो   पिकी के   गान में तुम,
तुम मिलीं   तो खुल गए संसार के इस भेद कितने। 

आज फिर बारिश हुई, बिखरा दिए क्या केश तुमने? 
                              (3)   
फिर हृदय मचला, भुजाओं में तुम्हें भर भींचने को, 
फिर तृषा जागी,तुम्हें अपने निकटतम खींचने को।
फिर कपोलों पर    उँगलियाँ फेरने का  भाव जागा, 
फिर अधर पर रख अधर को चूमने का चाव जागा। 

मन हुआ फिर    डूब जाने का    तुम्हारे लोचनों में, 
प्रीति का सागर   लगा निस्सीम   अंतर में उमड़ने।

आज फिर बारिश हुई, बिखरा दिए क्या केश तुमने?
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा


















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