Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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अब क्या कहने को शेष रहा

 
अब क्या कहने को शेष रहा? 
(1)
गीतों के पाँव लगे दुखने ,पर तुम तक नहीं पहुँच पाए;
थम गई लेखनी की लीला, शब्दों के   चेहरे मुरझाए। 
मेरा हर गाना व्यर्थ हुआ, छू सका तुम्हारा मन न अगर ;
मेरी हर कला विनष्ट हुई, डाला जिसने तुम पर असर। 

ऐसी कविता को आग लगे, 
ऐसा कौशल भाड़ में जाय ;

जब हर प्रयत्न असमर्थ भेजने में तुम तक संदेश रहा। 
अब क्या कहने को शेष रहा? 
(2)
क्या मतलब वाह वाह दुनिया, मेरे गीतों पर कहा करे ;
अपने भावों की झलक देख, रस की धारा में बहा करे। 
अपनी वेदना   लोग  देखें,    मेरे वेदना. भरे स्वर में ;
क्या मतलब जगे सहानुभूति, मेरे प्रति जग के अंतर में। 

पत्थर पसीज जाएँ तो क्या, 
मन में न तुम्हारे हुक उठे ;

तो यही कहूँगा काव्य - जगत में मेरा व्यर्थ प्रवेश रहा। 
अब क्या कहने को शेष रहा? 
(3)
हाथों में हाथ थाम मंदिर, में घंटी साथ बजाई जो ;
वह चादर हरी जिंदबाबा, को हमने साथ उढ़ाई जो। 
लौटते समय हम भीगे थे, बारिश में जो मूसलाधार ;
हँसते गाते थी राह कटी, वह यादें कैसे दूँ बिसार। 

वह चिदानंद अनुभव मेरे, 
जेहन में अब भी ताजा हैं ;

तुम भूलीं तुम्हें मुबारक हो, मेरा मिटने से क्लेश रहा। 
अब क्या कहने को शेष रहा? 
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गौरव शुक्ल
मन्योरा

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