अपना गाँव
चलो अब गाँव का अपने भी हाल लें चलकर।
वो गाँव जिसकी हर गली से मुहब्बत है मुझे,
खींचती जहाँ के हर शख्स की सोहबत है मुझे।
पुराना अपना वो इस्कूल अभी जिंदा है,
कई जगह से टूटा है ,ढहा ढहा सा है।
पर मुझे याद दिलाने के लिये काफी है,
कथा बचपन की सुनाने के लिये काफी है।
जहाँ बोरी पे बैठ पाटियों पे लिख लिखकर,
कभी खड़िया कभी कबिसा से कलम घिस घिसकर-
वर्णमाला का बेमिसाल ज्ञान पाया था,
लगा के हिज्जे किताबों को पढ़ना आया था।
वो पाठशाला,वो पंडित जी,और वो मुंशी जी,
वो बालपन की यारियाँ, वो सगे संबंधी-
आ अनायास खयालों में झूल जाते हैं,
हम भी दुनिया का भरमजाल भूल जाते हैं।
बड़े बूढों से मिलें और मिले छोटों से,
मिलें उन पेड़ों से सींचा था जिन्हें लोटों से।
देखें चलकर के बड़े कितने हो गये हैं वो,
छाँव में बैठ के उनकी है मन सुस्ताने को।
अपनी असली कमाइयों का लें हिसाबो-किताब,
पाया हमने क्या लुटाकर वो तोहफा नायाब।
जवाब दें चलकर और सवाल लें चलकर,
चलो अब गाँव का अपने भी हाल लें चलकर।
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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