बड़ा अभागा हूँ मैं
बड़ा अभागा हूँ मैं ,मुझे न प्यार करो तुम।
(१)
मैंने जिसको छुआ,हुआ वह पत्थर जैसा,
जिसे देखने लगा, वही श्री-हीन हो गया।
जिसको चाहा, उसके बुरे दिवस आ पहुँचे,
पाने जिसे चला, वह कहीं विलीन हो गया।
इसीलिये तुमको समझाता हूँ पहले ही ,
कदम डगमगाता अपना अन्यत्र धरो तुम।
बड़ा अभागा हूँ मैं मुझे न प्यार करो तुम।
(२)
सदा विधाता मेरा, मेरे वाम रहा है,
मेरी हर अभिलाष, अधूरी रही हमेशा।
मिले मुझे हैं हर पथ पर काँटे ही काँटे,
मेरी जीवन-नौका उल्टी बही हमेशा।
मेरे ऐसे नष्टप्राय उपवन में आकर,
नहीं चाहता,विवश कुसुम के सदृश झरो तुम।
बड़ा अभागा हूँ मैं, मुझे न प्यार करो तुम।
(३)
मैं वह फूल, कि जिसमें नहीं सुगंध तनिक भी,
मैं ऐसी कविता, जिसमें गतिभंग अनेकों।
मैं वह उपन्यास, जिसमें पीड़ा ही पीड़ा,
वह नाटक रसहीन, कि जिसमें रंग अनेकों।
इस नीरस, निर्गंध, अव्यवस्थित जीवन से,
तुम्हें सचेत कर रहा, थोड़ा बहुत डरो तुम।
बड़ा अभागा हूँ मैं मुझे न प्यार करो तुम।
(४)
जीवन के रस का मुझमें भी आकर्षण है,
चाहत मुझमें भी प्रभाव पैदा करती है।
देख स्वयं पर अर्पित होती दीपशिखा को,
मेरे मन में भी फुलझड़ी कहीं झरती है।
पूरा होना लिखा नहीं जिसकी किस्मत में,
वह खोटी कामना, न मन में पुनः भरो तुम।
बड़ा अभागा हूँ मैं मुझे न प्यार करो तुम।
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा
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