Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बस एक तुम्हारे होने से यह

 
बस एक   तुम्हारे होने से यह  दुनिया अपनी लगती है। 
(1)
तुम मेरी हो,   विश्वास यही,  काफी  है मेरे   जीवन को ;
तुम मिली मुझे, क्या और चाहिए मेरे हृदय अकिंचन को? 
मैं पाकर  तुम्हें कुबेर हुआ,   निस्सीम   हुआ मेरा वैभव ;
तुम पर मुझको श्रद्धा अपार, तुम पर मुझको अनंत गौरव। 

हो गया तुम्हें पाकर मेरी, हर कठिनाई का समाधान;
आशा का नया सवेरा है, हर धुंध दीखती छँटती है। 

बस एक तुम्हारे होने से यह दुनिया अपनी लगती है। 
(2)
मेरी खातिर व्रत कठिन, साधना अच्छा लगता है तुमको, 
मैं जीत सकूं, इसलिए, हारना अच्छा लगता है तुमको। 
कितनी मर्तबा मार अपना मन, मेरा मान रखा तुमने,
मेरे अवगुणों सहित मुझ को, स्वीकार किया जैसा तुमने - 

इस तरह करेगा कौन, सोचता हूं तो मन भर आता है ;
मेरे प्रत्येक रोम से तेरी खातिर दुआ निकलती है। 

बस एक तुम्हारे होने से यह दुनिया अपनी लगती है। 
(3)
कस्तूरी मेरे  भीतर थी, मैं खोज  रहा  था जंगल में ;
राजती पार्श्व में थी गंगा, जा किंतु नहाया दलदल में। 
आंगन की तुलसी छोड़, चढ़ाया नागफनी पर जल जाकर ;
मतिभ्रम ऐसा, कर सका नहीं, पारस में लोहे में अंतर। 

भटकाती रही तृषा मेरी, लंबे अरसे तक इतस्ततः, 
अब समझा ओस चाटने से, जीवन की प्यास न बुझती है। 

बस एक तुम्हारे होने से, यह दुनिया अपनी लगती है। 
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा

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