बिना तुम्हारे कैसे होली खेलें हम
बिना तुम्हारे कैसे होली खेलें हम?
जी करता एकांतवास ही ले लें हम।
छोड़ अचानक हमें कहाँ तुम चले गये?
हम निर्दयी नियति के हाथों छले गये।
भाई थे हम चार, तीन ही शेष रहे;
थे तुम सबसे बड़े, सदैव विशेष रहे।
होली में वह पिचकारी खरीद लाना,
रंग, गुलाल ढेर सारा लेकर आना।
पापा के सारे दायित्व निभाते थे,
हम भी अपने दादा पर इतराते थे।
बिठा साइकिल पर लखीमपुर में लाना,
छोटे छुन्ने को डंडे पर बैठाना।
हम थे थोड़े बड़े कैरियर पाते थे,
पूरी राह चुटकुले हमें सुनाते थे।
हँसते हँसते पेट फूल सा आता था,
घंटा एक, चुटकियों में कट जाता था।
मनचाहे कपड़े दुकान से दिलवाना,
दर्जी की दुकान पर जाकर नपवाना।
हमें जलेबी और समोसे खिला पिला,
मुँहमाँगी चीजें दुकान से हमें दिला-
फिल्म एक हमको जरूर दिखलाते थे;
बीच-बीच 'इस्टोरी' भी समझाते थे।
इतना लाड़ दुलार स्नेह निश्छल अनुपम,
क्या क्या करें याद क्या क्या बिसरा दें हम।
हम सबको खुश करके खुद खुश हो लेना,
ध्यान हमारी हर जरूरतों पर देना।
तब कितनी उमंग कितना उत्साह लिये,
जीवन के अनमोल क्षणों को जिया किये।
सोचा करते थे कि रोज होली आयें,
मेरे दादा हमें शहर लेकर जायें।
किंतु साल में एक बार ही आती थी,
होली, कितना इंतजार करवाती थी।
यही सोचते करते हम हो गये बड़े,
अपने पैरों पर अब जब हो गये खड़े।
हाय ! एक झटके में हमसे हाथ छुड़ा,
तुम दुनिया से अकस्मात् ले गये विदा।
रो रो तड़प तड़प करके रह जाता है,
मन भीतर भीतर कितना अकुलाता है।
काहे की होली, काहे की दीवाली,
बिना तुम्हारे दुनिया है खाली खाली।
त्योहारों का जोश तुम्हारे साथ गया,
कैसे सँभलें?टूट हमारा हाथ गया।
जिंदा हैं , शायद,जीना मजबूरी है,
पैर कटे हैं, चलना किंतु जरूरी है।
कैसे जियें, हमें कुछ पाठ पढ़ा जाओ,
सपने में ही आकर के समझा जाओ।
कैसे धैर्य धरें, यह पीड़ा झेलें हम?
बिना तुम्हारे होली कैसे खेलें हम?
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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