Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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चाय और कविता

 
चाय और कविता

... बज गए हैं चार प्रातःकाल के, 
मेरा 'अलारम' बज गया है। 
 छोड़ बिस्तर, 
 हाथ मुँह धोकर, 
 चढ़ा दी चाय है। 
पक रही है आँच में धीमी। 

इधर मैं देखता हूँ
 खोलकर खिड़की, 
प्रकृति फिर मौन है,
निस्तब्ध, नीरव। 
रोज की ही भाँति, सन्नाटा घना पसरा हुआ है। 
 मात्र बाहर ही नहीं, 
भीतर, 
बहुत भीतर, 
कहीं मेरे हृदय पट पर, 
 कठिन, अव्यक्त सा। 
और फिर मैं जूझता हूँ, 
रोज की ही भाँति, 
 अपनी उस कसक, उस वेदना से,
 जो कि मेरा बन गई पर्याय है। 
फिर अकेलापन वही घेरेे खड़ा है।
रोज की ही भाँति, फिर मेरी परीक्षा ले रहा सा। 
कह रहा
'जूझो, भिड़ो मुझसे, 
लड़ाओ, सिर लड़ाओ,
रोज की ही भाँति, 
मुझसे त्राण पाने के उपायों को तलाशो। 
पर मुझे मालूम है, 
तुम हर दिशा में घूम फिर कर, 
दस मिनट में भ्रम भटक कर, 
देश दुनिया का लगाकर एक चक्कर, 
फिर हमारे पास लौटोगे। 
क्योंकि मैं ही हूँ तुम्हारा मित्र सच्चा। 
मत भुलाओ, 
तुम हमारी ही वजह से कवि बने हो।
घोरतम अंतर्मुखी बनकर कमाये गीत हैं जो आज तक, 
 वह सिर्फ मेरी ही वजह से। 
लग रहा होगा तुम्हें, 
 मैं काटने को दौड़ता हूँ रोज तुमको, 
क्योंकि वह मेरी प्रकृति है। 
 किंतु यदि मैं थामता तुमको न,
तो तुम, स्यात् इस जग में न होते।'

 और फिर मैं सोचता हूँ, 
 यह अकेलापन, सही तो कह रहा है, 
सत्य अक्षरशः, इसी से प्यार करना चाहिए। 
और इस परित्यक्त, अपनी आत्म केंद्रित जिंदगी में, 
 इस अनोखे मित्र का सत्कार करना चाहिए। 
 जिंदगी में यह निराकारी अकेलापन, 
न इसका रूप कोई, 
रंग कोई, 
 गंध कोई, 
किंतु मेरी चेतना पर किस तरह छाया हुआ है। 
और जब संबंध साबित हो चुका हर एक झूठा, 
 तब लिए निस्सीम अपनापन निकट आया हुआ है। 
अंक में भर लूँ तुम्हें, 
आओ, 
समा जाओ, 
हमारे प्राण में। 
क्योंकि तुम-सा मित्र दुनिया में नहीं है। 
 सच यही है। 
 मैं तुम्हें पाकर परम आनंदमय हूँ। 
क्या सुखद एहसास है,भावस्थ हूँ, 
 मग्न होता जा रहा हूँ, 
फिर कहीं भीतर, 
बहुत भीतर, 
स्वयं में, 
कल्पना के लोक में।
सर्वथा जो भिन्न है इस वाह्य जग से।।। 

पर इसी क्षण, 
आ रही है गंध जलने की किचन से, 
चाय शायद जल गयी है। 
और मैं भी जल गया हूँ सोचकर सब। 
घूम फिर कर फिर वहीं पर आ गया हूँ। 
 किंतु मैं इंसान हूँ, 
 स्वीकारने में हार, मेरी 'बेज्जती' है। 
 फिर चढ़ेगी चाय औ' इस बार बनकर ही रहेगी, 
 और मैं सीना फुलाकर, 
सिर उठाकर, 
इस जगत के सामने फिर से खड़ा हो कर रहूँगा। 
 देख लेना, 
क्योंकि मैं इंसान हूं स्वीकारने में हार मेरी 'बेज्जती' है।
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  गौरव शुक्ल
मन्योरा

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