मैं निविड़ तम में धवल आलोक को पाने चला था।
(1)
दृष्टि का यह दोष था या अनुभवों की ही कमी थी,
या मुझे यह बुद्धि मेरे ही सरल मन से मिली थी।
बात कुछ हो हाथ अपने ही स्वयं मैं छल गया हूँ,
बर्फ जिसको जानकर छूने चला था, जल गया हूँ।
गंदगी के ढेर पर आदत जिन्हें है बैठने की,
मैं उन्हें अपनी पलक पर हाय बिठलाने चला था।
(2)
यह अप्रत्याशित अकल्पित सुन रहा हूँ सत्य कैसा,
जानता हूँ सत्य है निर्मम मगर क्या किन्तु ऐसा -
रवि प्रतीची में उगेगा, आपगा उल्टी बहेगी,
इस तरह के सत्य भी क्या मानवी प्रज्ञा सहेगी?
लाख कोशिश के अनंतर भी न जो अब तक किसी के
हैं हुए, जड़ मन हमारा उन्हें अपनाने चला था।
(3)
एकनिष्ठा की तपस्या है कठिन, दुर्वह बड़ी है,
प्रेमियों की यह परीक्षाएँ लिया करती कड़ी है।
प्रेम जिनकी दृष्टि में है वासना का खेल केवल,
जो समझते हैं इसे मन का न, तन का मेल केवल -
देखकर रोते किसी को भी हँसी आती जिन्हें है,
मैं उन्हें सम्वेदना का अर्थ समझाने चला था।
'' मैं निविड़ तम में धवल आलोक को पाने चला था।
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गौरव शुक्ल
मन्योरा
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