Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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दुर्विपाक

 

दुर्विपाक




'' तुम किसी की हो चुकी हो जानता हूँ, 
 सांत्वना इतनी मगर काफी नहीं है। 
                    (1)
जानता हूँ अब तुम्हारी सौम्य चितवन, 
पर, किसी की दृष्टि का पहरा कड़ा है। 
जानता हूँ अब तुम्हारी स्निग्ध  बाँहें, 
भेंटने को दूसरा आतुर      खड़ा है। 

 अब प्रतीक्षा में तुम्हारी दूसरा भी, 
 कुछ विकल, कुछ अनमना-सा हो रहा है। 
और कुल अस्तित्व उसका भी ढरक कर, 
चूमने को तुम्हें, संयम खो रहा है। 

 चाहता था, मैं तुम्हारी माँग भरता, 
 मैं तुम्हारा साथ पा कुछ कर गुजरता। 

 किंतु जाने कौन यह आँधी चली है, 
भोर में ही लग रहा संध्या ढली है। 

हूँ खड़ा विस्मित, व्यथित, हतबोध सा मैं, 
राह आगे की कहीं दिखती नहीं है।
तुम किसी की हो चुकी हो जानता हूँ, 
सांत्वना इतनी मगर काफी नहीं है। 
                    (2)  
याद आता है दिवस वह, जब अचानक, 
 हो उठी थी कामना चंचल हमारी। 
था दिवस कटता तुम्हारी राह तकते, 
 करवटों में बीतती थी रात सारी। 

 सोचता था छोड़ यह संकोच सारा, 
 खोलकर अंतःकरण तुम को दिखा दूँ। 
 प्रीति की जो रागिनी सी बज रही है, 
हृदय में मेरे, तुम्हें भी कुछ सुना दूँ। 

 आह! यह संकोच भी कितना छली है, 
 सत्य ही भवितव्यता अतिशय बली है। 

सिर पटक कर आज धीरज रो उठा है, 
 शांति का डेरा कहीं जैसे लुटा है। 

ढह गए हैं कल्पना के महल सारे, 
एक भी आशा बची बाकी नहीं है। 
 तुम किसी की हो चुकी हो जानता हूँ, 
सांत्वना इतनी मगर काफी नहीं है। 
                      (3)
तुम अगर मुझको मिली होती निरुपमे!
आज कोई दूसरा ही दृश्य होता। 
देख कर जी भर तुम्हारी निष्कलुष छवि, 
क्यों न मेरा जन्म भी कृतकृत्य होता। 

 डालियाँ झुक झुक हमें सम्मान देती, 
झूमकर स्वागत हमारा पुष्प करते। 
 पक्षिजन विरुदावली गाते हमारी, 
मोद से सहृदय जनों के उर सिहरते। 

 प्रेम क्या है? तब जगत को मैं दिखाता, 
और उसकी शक्ति से परिचित कराता। 

 स्यात् मिथ्या दर्प औंधे मुँह गिरा है, 
 योजना पर मूल से पानी फिरा है। 

चाहता हूँ फोड़ लूँ सिर आप अपना, 
 जिंदगी अब तू सही जाती नहीं है। 
तुम किसी की हो चुकी हो जानता हूँ, 
सांत्वना इतनी मगर काफी नहीं है। 
                  (4)
दोष क्यों प्रारब्ध को झूठा लगाऊँ, 
धारणा मुझ में स्वयं अनुचित पली थी। 
'प्रेम भाषा है कपोलों की, नयन की, '
सूक्ति अंतर में बड़ी गहरी ढली थी। 

सोचता था, तुम कभी तो पढ़ सकोगी, 
 प्रेम से आकुल हृदय की मौन भाषा। 
दुष्ट पूर्वाग्रह यही तो डस गया है, 
कर गयी है अब हृदय में घर हताशा। 

या मुझे यह व्यंजना आती नहीं थी, 
या तुम्हें ही यह कला भाती नहीं थी। 

पाँव पर खुद ही कुल्हाड़ी ली चला है, 
हाय! सुख की कल्पना भी क्या बला है? 

 हो गई साकार वह तब तो सही है, 
 अन्यथा वह वस्तु सुखदायी नहीं है। 
 तुम किसी की हो चुकी हो जानता हूँ, 
सांत्वना इतनी मगर काफी नहीं है। 
                    (5)
हाय! वह कमनीय मुखमंडल तुम्हारा, 
 हूक सी मुझ में उठाता है अभी भी। 
 वह नजर मिलते तुम्हारा झेंप जाना, 
बिजलियों सा कौंध जाता है अभी भी। 

 शर्म से, संकोच से बोझिल निगाहें, 
भूल से भी हूँ नहीं मैं भूल पाता। 
उस सरलता, शीलता, शालीनता के, 
 आज भी हूँ मैं सभी से गीत गाता। 

गर्व भौतिक सिद्धि पर करते नहीं है, 
 रूप पर ही व्यक्ति जो मरते नहीं है;

 तुम उन्हीं आदर्श जन की कल्पना हो, 
ब्रम्ह की उत्कृष्टतम तुम सर्जना हो। 

 क्या करूँ तुलना तुम्हारी दिग्भ्रमित हूँ, 
एक भी उपमा सही आती नहीं है। 
तुम किसी की हो चुकी हो जानता हूँ, 
 सांत्वना इतनी मगर काफी नहीं है। 
                    (6)
भाँवरें कहती जिसे तुम घूमती हो,
वह किसी के वक्ष पर चकिया चली है। 
तुम नहीं ब्याही गई हो, यूँ समझ लो, 
दैव ने कंगाल की निधि छीन ली है। 

माँग पर सिंदूर जो तुमने धरा है, 
घाव पर मेरे नमक जैसा पड़ा है। 
पग दिया तुमने न पति की देहरी पर, 
 प्राण पर मेरे लगा धक्का बड़ा है। 

यह न मंगल गीत गाये जा रहे हैं,
शूल से उर में गड़ाये जा रहे हैं। 

 तुम समझती हो कि शहनाई बजी है, 
वस्तुतः उट्ठा किसी का चीख जी है। 

 फुँक गए अरमान हैं जिसमें किसी के, 
 वह चिता है यह, हुई शादी नहीं है। 
 तुम किसी की हो चुकी हो जानता हूँ 
सांत्वना इतनी मगर काफी नहीं है। 

-गौरव शुक्ल 
मन्योरा 

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