एक कश्मीरी सैनिक का पत्र
घर बार छोड़ कर बियाबान में बैठे हैं,
इसलिए नहीं, रोटी के हमको लाले थे।
दो हाथ और दो पैर पास अपने भी थे,
माँ-बाप हमें भी मिले चाहने वाले थे।
चुभता था काँटा कभी एक भी अगर हमें,
मेरी माँ मुझसे अधिक विकल हो उठती थी।
एहसास दर्द का हमें बाद में होता था,
पर पहले उसकी आँख सजल हो उठती थी।
लेकिन जिस दिन सेना में भर्ती मिली हमें,
कितने गौरव से सिर पर हाथ फिराया था।
' मेरी भी उमर तुम्हें लग जाए बेटा' - कह,
हम पर अपना आशीष अनंत लुटाया था।
ऐसा घर, ऐसे माता पिता, छोड़ आए,
इसलिए, देश हमको, उनसे भी प्यारा था।
जिम्मेदारी, उससे भी बड़ी, निभानी थी,
दायित्व इधर, उससे भी बड़ा हमारा था।
इस जननी जन्मभूमि का ऋण भी था हम पर,
इस ओर चुनौती, कुछ उससे, ज्यादा ही थी।
इस पर खतरे का हमको अधिक अँदेशा था,
इसलिए फूल को फेंक, राइफल थामी थी।
भाता हमको भी नर्म बिछौना था,'साहब',
हम भी तकिया गुदगुदी लगाकर सोते थे।
लग्जरी कार में देख घूमते लोगों को,
कुछ कमोबेश हम भी आकर्षित होते थे।
लेकिन ऐसे सैकड़ों मोह को धता बता,
घर से आतंकवाद से लड़ने निकले थे।
सीमा पर दुश्मन आँख उठाकर देखे जो,
ऐसे दुश्मन का शीश कुचलने निकले थे।
इसलिए नहीं, दो कौड़ी के गद्दारों से,
पत्थर पर पत्थर खाएँ, और न कुछ बोलें।
यह कल के लौंडे हमें पीटते रहें और,
हम पिटते रहें, नहीं अपनी जुबान खोलें।
क्या इसीलिए राइफल थमाई थी हमको,
पीठों पर हमको 'मैगजीन' लदवाई थी?
क्या इसी नपुंसक रीति नीति के बूते पर,
भारत माँ की रक्षा की शपथ दिलाई थी?
आहत, शरीर ही नहीं मात्र है, मन भी है ;
यह चोट, देह से ज्यादा आत्मा खाती है।
सीने में देशभक्ति की जितनी आग भरी,
सारी की सारी मन मसोस रह जाती है।
बस एक बार कह कर के तो देखो 'साहब',
दो दिन में इनकी सारी हवा निकालेंगे।
जो आजादी का भूत चढ़ा है इनके सिर,
देखना आप, हम कैसे उसे उतारेंगे।
काश्मीर रिक्त अलगाववादियों से होगा,
दो दिन में वापस अमन चैन आ जाएगा।
धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला प्रदेेश,
दो दिन में अपने नव स्वरुप को पायेगा।
यदि इतना भी आदेश न दे सकते हमको,
तो हम सब की वर्दी उतार कर धरवा लो।
हमसे कह दो, हम अपने-अपने घर जाएँ,
इन पत्थरबाजों के मालाएँ डलवा दो।
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रचनाकार -
गौरव शुक्ल
मन्योरा
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