एक कब की भावना सोई हुई मन में जगाकर
एक कब की भावना सोई हुई मन में जगाकर,
छोड़कर मुझको अकेला आज तुम भी जा रही हो।
(1)
जिस समय मैं जिंदगी में हर तरफ से थक चुका था,
कामनाएँ मर चुकी थीं और अंतर्मन फुँका था।
तब तुम्हीं ने प्राण मुझ में डालकर जीवित बनाया,
फिर उदासी पूर्ण दुनिया में नयापन लौट आया।
अब कि जब मेरे स्वरों ने फिर चहकना सिख लिया है,
छीन कर सुख फिर वही करुणा मुझे लौटा रही हो।
एक कब की भावना सोई हुई मन में जगाकर,
छोड़कर मुझको अकेला आज तुम भी जा रही हो।
(2)
मानता हूँ हर कली आजाद है वह रस लुटाए,
दे महक सारे जगत को, रस सहित या सूख जाए।
पर कली से ही जगी जो रस पिपासा है भ्रमर में,
रंच भी अधिकार उसका क्या न कलियों की नजर में।
चेतना हर कर अभौतिक रस-प्रभावों के सहारे,
और फिर वंचित उन्हीं से कर मुझे तड़पा रही हो।
एक कब की भावना सोई हुई मन में जगाकर,
छोड़कर मुझको अकेला आज तुम भी जा रही हो।
(3)
रोक पाया कौन है उसको भला, जाना जिसे है ;
बाँध पाया कौन मिलने के लिए आना जिसे है।
पर तुम्हारा सिर्फ था उद्देश्य मेरी शांति हरना,
शांत मन में फिर तरंगें सी उठा बेचैन करना।
आह! यह अभिशप्त जीवन और कितने दिन चलेगा,
प्राण ही हर लो हमारे, किसलिए सकुचा आ रही हो।
एक कब की भावना सोई हुई मन में जगाकर,
छोड़कर मुझको अकेला आज तुम भी जा रही हो।
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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