Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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है नहीं गंतव्य का अनुमान

 
है नहीं गंतव्य का अनुमान 

 नहीं गंतव्य का अनुमान धुँधला भी नजर में, 
भावना की उस डगर पर आँख मींचे,जा रहा मैं। 
                               (1)
भावना की वह डगर, जिस पर सुमन कम,शूल ज्यादा, 
 मौसमों का रुख जहाँ, अनुकूल कम, प्रतिकूल ज्यादा। 
 दृश्यता है शून्य पर,    इतना अधिक    कुहरा घना है, 
अंधड़ों का वेग       प्रति पग पर     खड़ा बैरी बना है। 

किंतु रुकने को नहीं तैयार हैं मेरे कदम अब, 
रोक पाने में इन्हें असफल स्वयं को पा रहा मैं। 

है नहीं गंतव्य का अनुमान धुँधला भी नजर में, 
भावना की उस डगर पर आँख मींचे, जा रहा मैं। 
                              (2)
उस तरफ से दे रहा है कौन यह मुझको निमंत्रण? 
जो कि खोता जा रहा है इंद्रियों पर से नियंत्रण। 
गा रहे हैं गीत में भरकर किसे यह गान मेरे? 
कौन चुंबक की तरह से खींचता है प्राण मेरे? 

कौन लेने आ गया मेरी बलाएँ शीश अपने? 
सौंपने को कुल जगत का सुख किसे ललचा रहा मैं? 

है नहीं गंतव्य का अनुमान धुँधला भी नजर में, 
भावना की उस डगर पर आँख मींचे जा रहा मैं। 
                         (3)
 छँट रहा है आँख आगे से निराशा का अँधेरा, 
चिरप्रतीक्षित आ रहा है पास आशा का सवेरा। 
वेद सी मन में ऋचाएँ गुनगुनाई जा रही हैं, 
 कर्णप्रिय संगीत की ध्वनियाँ किधर से आ रही हैं? 

चाहता है कौन मेरा भार निज सिर पर उठाना? 
भेंट लेने को किसे दिल खोलकर अकुला रहा मैं? 

है नहीं गंतव्य का अनुमान धुँधला भी नजर में, 
भावना की उस डगर पर आँख मींचे, जा रहा मैं। 
                     - - - - - - - - - - 
-गौरव शुक्ल
मन्योरा 
लखीमपुर खीरी 

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