Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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हे राम! तुम्हारी कैसी यह माया है?

 

हे राम! तुम्हारी कैसी यह माया है?

फिर आज एकता पर संकट छाया है;

भाई से भाई जाता टकराया है, 

हे राम! तुम्हारी कैसी यह माया है? 

हे निर्विकार, तीनों लोकों के स्वामी!

अविनाशी, घट घट वासी अंतर्यामी! 

हे दीनदयाल, कृपाल, सर्वहितकारी! 

माया गुण ज्ञानातीत, अमान अघारी! 

अविगत ,गोतीत, चरित्र पुनीत ,मुकुंदा, 

अनवद्य, अखंड, अथाह, सच्चिदानंदा।

भव भय भंजन,मुनि मन रंजन, सुरनायक,

प्रिय सिंधु सुता के,प्रणत पाल सुखदायक।

भारत क्या, जिनको निखिल विश्व तृण-सम है,

परिवार सौर सौ, एक  रोम  से  कम   है।

मंदाकिनियाँ शत कोटि, एक नख भर हैं, 

जो महा शंख ब्रह्मांडों से बढ़कर हैं। 

सूक्ष्मतम सूक्ष्म से हो, गुरु से गुरुतम हो, 

सब भाँति अलौकिक,पावन हो,अनुपम हो ।

गायें युग युग तक ब्रह्मादिक मुनि नारद, 

वाल्मीकि, व्यास, तुलसी विज्ञान विशारद। 

गायें युग युग तक संतत शंभु भवानी, 

घटसंभव, कागभुशुंडि गरुड़ से ज्ञानी। 

शारदा स्वयं कर में लेखनी उठायें, 

शत मुख से शेषनाग कहने लग जायें ;

वर्णन तब भी तो संभव नहीं तुम्हारा, 

कह नेति नेति सबने इसलिए पुकारा।

        *           *           *       

क्या नाम आपको दें आप ही बताओ? 

ईश्वर बोलें या खुदा स्वयं जतलाओ? 

यदि 'गाॅड' कह दिया तो क्या भड़क उठोगे? 

यदि कहा 'यहोवा' तो आशीष न दोगे? 

क्या आप सिर्फ मंदिर में ही बसते हैं? 

मस्जिद की नहीं अजान सुना करते हैं? 

कह दो न सिखों की 'गुरबानी' भाती है? 

'प्रे' कहो चर्च वाली न समझ आती है? 

कह दो कि फारसी नहीं पढ़ी है मैंने? 

अरबी, अंग्रेजी नहीं सिखी है मैंने? 

कह दो उर्दू से मुझको घिन आती है? 

पढ़ते गुरमुखी जबान अटक जाती है? 

कह दो कुरान से मुझे सख्त नफरत है? 

कह दो कि बाइबिल नहीं खूबसूरत है? 

कह दो गुरुग्रंथ नहीं मुझको प्यारा है? 

यह भी कह दो 'तौनात' व्यर्थ सारा है? 

प्रभु ऐसे हो तो मुझे माफ कर देना, 

कुछ नहीं आपसे मुझको देना लेना।

या फिर कह दो प्रभु राम! न मैं ऐसा हूँ, 

तुम जैसा समझे मुझे न मैं वैसा हूँ।

वह धर्म नहीं है जो हिंदू कहते हैं, 

या मुस्लिम जिसको रोज रटा करते हैं,

ले जिसे यहूदी रोज झगड़ते रहते, 

ईसाई जिसके लिए भड़कते रहते।

यह धर्म नहीं किंचित, अधर्म का पथ है, 

जा रहा आज जिस पर नरता का रथ है;

वह दिशाहीन, भटकाव भरा, घातक है, 

यह पुण्य नहीं कह दो विशुद्ध पातक है। 

यह पथ प्रपंच से छल से भरा हुआ है, 

यह धर्म नहीं जीवित है, मरा हुआ है। 

तुम उसी धर्म की लाश मात्र ढोते हो, 

विघटन के नूतन बीज नित्य बोते हो। 

यह कथित धर्म बेहद विनाशकारी है। 

यह धर्म नहीं,   संक्रामक   बीमारी है। 

प्रभु कहो धर्म के इन ठेकेदारों से! 

जाहिलों, बनावटियों से, गद्दारों से! 

मानवता के रिपुओं इन, हत्यारों से! 

ड्रामेबाजों, फरेबियों, मक्कारों से! 

जो आज सांप्रदायिकता फैलाते हैं, 

नफरत बोते हैं, रंजिश उपजाते हैं।

जनता की नस-नस में भर दिया जहर है, 

बस धर्म वोट लेने का माध्यम भर है। 

प्रिय नहीं मुझे हैं वह अशांति के राही,

भाषण देते हैं केवल हवा हवाई। 

उनको न धर्म की चिंता रत्ती भर है, 

है राम कौन रहमान न उन्हें खबर है। 

है तर्क न उनके पास, तथ्य कोई है, 

जड़ता अनल्प कटुता अनंत बोई है। 

मुझ पर अपना एकाधिकार जतलाकर - 

मुझको विज्ञापन की संवस्तु बनाकर - 

मद में डूबे हैं, भ्रम में बौराये हैं, 

जग में मेरे उद्धार हेतु आए हैं। 

इस विभ्रम पर हँसना भी हास्यास्पद है, 

यह दया योग्य ही विक्षिप्तता विशद है। 

अच्छा होगा मुझ पर विमर्श ही त्यागो, 

जागो! मेरी सन्तानों, जागो जागो!! 

तज द्वेष, प्रेम से रहो सभी हिल मिलकर, 

है राम वहीं, है प्रेम जहाँ धरती पर ।।। 

           - - - - - - - 

-गौरव शुक्ल

मन्योरा

लखीमपुर खीरी 

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