Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जीवन दर्शन

 
"जीवन दर्शन "
(1)
इस जीवन के कितने ही उतार-चढ़ाव में जा कर देख लिया; 
अनुराग के, प्रेम के मित्र बड़े बड़े मोल चुका कर देख लिया। 
हुआ दूसरों का और दूसरों को अपना भी बना कर देख लिया; 
मन को समझा कर देख लिया, तन को तरसाकर देख लिया। 
(2)
हमने अपनों को है देखा जरा जरा बात पे दूसरों का बनते;
इक को दुख देते रुलाते हैं दूसरे के सँग जाकर हैं हँसते। 
बस आदमी हैं दो टके के परंतु जो बातें बड़ी-बड़ी ही करते ;
क्षण में जलते, क्षण में बुझते, कभी हाँ करते, कभी ना कहते। 
(3)
अपनी इस छोटी सी जिंदगी में बना हूँ बिगड़ा हूँ कई दफे मैं ;
करूँ बात क्या दूसरों की खुद ही खुद से झगड़ा हूँ कई दफे मैं। 
इन रास्तों पे चलते चलते गिरा हूँ सँभला हूँ कई दफे मैं;
जुड़ के बिखरा, चढ़ के उतरा, मिल के बिछुड़ा हूँ कई दफे मैं। 
(4)
उपदेश न दो यों मुझे है अभीष्ट क्या मैं भी उसे पहचानता हूँ;
व्यवहार किया करता विपरीत बड़ा विधि को सदा मानता हूँ। 
फिर भी बुरे कर्मों में लीन हुआ शुभ कर्मों को यद्यपि जानता हूँ ;
सच बोलता हूँ तुमसे इसमें कुछ भी नहीं झूठ बखानता हूँ। 
(5)
भीतर-भीतर रोकर भी हँसता रहा बाहर बाहर हूँ ;
दाग बड़े पड़े किंतु न मैली हुई अब भी वह चादर हूँ । 
कैसे कहूँ मन में कितने भरे वेदना के महासागर हूँ ;
भाग्य की हाय प्रवंचना देखिए छोड़ा गया अपनाकर हूँ। 
(6)
जीने की इच्छा हुई जब भी तब लोगों ने जीवन छीन लिया;
चाहा कभी मरना हमने सब ने मरने हमें भी न दिया। 
जी न सका, मर भी न सका, मुझे लोगों ने दोनों से हीन किया;
मानो या मानो नहीं पर मैंने भी जीवन एक नवीन जिया। 
(7)
मुझको मेरे चाहने वाले कभी अपनाते कभी ठुकराते रहे;
पलकों पे बिठाते रहे मुझको कभी आँख से नीचे गिराते रहे। 
कभी प्रेम किया, कभी द्वेष दिया, इलजाम कभी ये लगाते रहे;
सब झेलता मैं चुपचाप रहा हर भाँति मुझे ये बनाते रहे। 
(8)
फिर भी सबको सुखी देखने की मेरी लालसा रंच घटी न कभी; 
सबका मन राखने की कमजोरी हमारी परंतु हटी न कभी। 
सुख पाऊँ किसी को दे कष्ट, ये भावना मेरे हृदै में डटी न कभी; 
इस कारण ही मेरे दुःख की शायद रात अँधेरी कटी न कभी। 
(9)
सोचता तो कुछ और था मैं कुछ और ही किंतु रहा करता;
रोकता था जिस से खुद को उस ओर ही और गया बढ़ता। 
मोह का ऐसा पड़ा परदा, रहा पूजता ऊपरी सुंदरता ;
ऊसर में रहा रोपता बीज गई बढ़ती ही मेरी जड़ता। 
(10)
अपने जब रूठ गए मुझसे फिर और भरोसा करूँ किसका? 
पहचान सके न मुझे जब वे तब नाम ले और मरूँ किसका? 
अपनी ही न पीड़ा सँभाल सका फिर दर्द मैं और हरूँ किसका? 
सब के सब एक समान मिले फिर बेवफा नाम धरूँ किसका?
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
मोबाइल - 7398925402

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