क्रूरता पर आस्था की विजय का दिवस!
अनास्था पर आस्था की विजय का दिवस!
कट्टरता पर आस्था की विजय का दिवस!
इन तीनों पंक्तियों में तीसरी पंक्ति ज्यादा सटीक लगती है।
बाबर यदि धर्म को लेकर इतना कट्टर न होता तो शायद आज इसकी जरूरत न होती।
अपनी दृष्टि में धार्मिक तो वह भी बहुत रहा होगा अपने धर्म को लेकर.
शायद कुछ ज्यादा ही
कुछ नहीं बल्कि बहुत ज्यादा.
यदि अपने धर्म को लेकर वह इतना कट्टर न रहा होता तो मंदिर को तोड़ा ही क्यों गया होता.
उसकी धार्मिक कट्टरता की सनक और सत्ता की ताकत ने जिस अधर्म और अमानुषिकता का पहाड़ खड़ा करने की चेष्टा की थी आज अंततः वह ढह गया।
धर्म भी कैसे कैसे अधर्म लेकर आता है!
ताकत भी कैसे कैसे अन्याय कराती है,
आज यह भी सीखने समझने और सोचने की जरूरत है।
धर्म के प्रति आस्था जब इतनी बढ़ जाये कि दूसरे धर्म तुच्छ और व्यर्थ जान पड़ने लगें.
जब यह महसूस होने लगे कि दूसरे धर्म की जरूरत ही नहीं है उसे तो इस धरती पर नष्ट ही हो जाना चाहिए और यह सोचते सोचते उसे नष्ट करने के प्रयास भी होने लगें, तभी ऐसे कृत्य होते हैं जो बाबर ने किये.
हो तो एक पक्ष यह भी सकता है कि वह इतना आस्थावान न हो जितना दिखाने का उसने प्रयास किया.
वह अपनी ताकत (power) की निशानी छोड़ना चाह रहा हो,
वह एक धर्म के लोगों को चिढ़ाने की नीयत से ही ऐसा कर रहा हो,
'उजरे हरष बिषाद बसेरे' वाली प्रकृति का हो.
खैर ये ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर अपने दिल पर हाथ रखकर वही दे सकता है.
खैर जो हुआ वह एक ताकतवर धर्म के लोगों का तत्समय कमजोर धर्म के लोगों के ऊपर अन्याय और अत्याचार था।
धर्म की स्वीकार्यता के भी स्तर होते हैं.
धर्म जब तक एक सीमा में रहता है तभी तक धर्म होता है। सीमा पार होने से वही अधर्म हो जाता है और अस्वीकार्य भी।
धर्म और अधर्म के बीच की रेखा बड़ी महीन जान पड़ती है.पड़ती ही नहीं होती भी है।
धर्म कदाचित् वहाँ है ही नहीं जहाँ हम उसे दिखाना चाहते हैं, स्थापित करना चाहते हैं या फिर उसे मनवाना चाहते हैं
धर्म तो मन के कहीं भीतर कहीं गहराई में छिपा रहता है.
कबीर समझा कर थक गये। कौन समझा?
समझा भी हो तो माना किसने!
कबीर मगहर में मरे इसलिए कि यह मिथक टूटे कि मगहर में मरने मात्र से ही कौई गधा पैदा नहीं होता
पर लोगों ने लाइन थोड़ी बदल दी पर विश्वास नहीं बदला
'कबिरा मरनि मरै जनि कोई
मगहर मरी सो गदहै होई।'
खैर आज का यह उत्सव सर्व धर्म समभाव का प्रतीक बने. हमारे आचरण में शुचिता पोषित करने वाला बने.
कटुता समाप्त हो. स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरे को हीन न समझा जाये.
किसी के सम्मान को चोट पहुंचाने का यदि हमारा रत्ती भर भी उद्देश्य हुआ तो हम कुछ पाने के बदले बहुत कुछ खो चुके होंगे।
आखिरकार हम बाबर तो हैं नही न हम वह साबित करना चाहेंगे।
-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY