Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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कब कहा मैंने कि मुझको कवि कहो तुम!

 
कब कहा मैंने कि मुझको कवि कहो तुम!


कब कहा मैंने कि मुझको कवि कहो तुम!

जी नहीं, मैं कवि नहीं हूँ, आप धोखा खा रहे हैं, 
व्यर्थ कमियाँ खोज मुझ में स्वयं पर इतरा रहे हैं। 
मैं सकल गुण हीन, विद्याहीन, 
कविता की कलाओं से अपरिचित सर्वथा। 
ओज औ' न प्रसाद ना माधुर्य, 
तीनों गुण मुझे आते नहीं हैं। 
भाव क्या है? है कला क्या? 
काव्य के यह पक्ष दोनों
 मैं नहीं हूँ साध पाता। 
नौ रसों में एक भी तो, 
है न मेरे हाथ आता। 

छंद का ज्ञाता नहीं हूँ, साफगोई से बता दूँ ;
शब्द की सामर्थ्य भी अत्यल्प है यह भी जता दूँ। 

श्लेष, रूपक, यमक, उत्प्रेक्षा तथा अनुप्रास, 
यह सब दूर की कौड़ी सदा मेरे लिए हैं। 
क्या अपह्नुति और क्या वक्रोक्ति, 
यह सब बुद्धि से मेरी परे हैं। 
है न अभिधा, लक्षणा, औ' व्यंजना का ज्ञान मुझको;
 काव्य की इन शक्तियों की है नहीं पहचान मुझको। 
भाव संप्रेषण कुशलता से करूँ, 
इतनी कहां सामर्थ्य मुझमें। 

इसलिए मेरा निवेदन है मुझे तुम कवि न मानो। 
मान सकते हो अगर, तो बस मुझे इंसान मानो। 
मांस, मज्जा, अस्थि से निर्मित मनुज ऐसा, 
 कि जिसमें प्राण भी डाला गया है। 
पंचतत्वों से बनी इस देह के भीतर, 
हृदय कोई छुपा है। 
जो धड़कता ही नहीं महसूस भी करता बहुत कुछ। 
और जो महसूस करता है,
 उसी को, शब्द देने का किया आयास करता। 
चित्र कुछ मन में बनाता और उनमें रंग भरता। 

और यह चेष्टा समूची,
देश दुनिया से कभी आग्रह दुराग्रह यह नहीं करती, 
कि उसको लोक यह कविता बताये। 
यह उपक्रम इसलिए है, 
ताकि इस संताप से उद्भ्रांत मन को, 
मिल सके विश्राम थोड़ा। 
वेदना विगलित हृदय को, 
आ सके आराम थोड़ा। 

बात यह भी साफ कर दूँ, 
यह समूची प्रक्रिया सम्मान की भूखी नहीं है। 
और यह आत्मा किसी यशगान की भूखी नहीं है। 
आप के साम्राज्य में, 
मेरा नहीं कोई दखल है। 

आप त्रुटियों की तरफ मेरी नहीं संकेत करिये। 
गल्तियाँ अपनी स्वयं मैं जानता पहचानता हूँ। 
पर मुझे मालूम है यह, 
आप इतने से नहीं रोके रुकेंगे। 
इसलिए कहना पड़ेगा, 
आप छिद्रान्वेषिता से ग्रस्त हैं, लाचार हैं, 
आप सीधे तौर पर मस्तिष्क से बीमार हैं। 
आप अपने ज्ञान के अभिमान में, 
आपादमस्तक लीन हैं। 
पर बड़े अफसोस के सँग कह रहा हूँ यह 
कि कविता बाँचने के हेतु आवश्यक नहीं है ज्ञान, 
प्रत्युत् भावनाओं की अपेक्षा ही अधिक है। 

इसलिए आलोचना सम्राट! 
पहले भावना की उस दशा को प्राप्त करिए, 
जो कि रचना काल के दौरान, 
रचनाकार के मस्तिष्क की थी। 
यदि नहीं, 
तो हे समीक्षा कार! अपनी कलम रखकर;
 और नुक्ताचीनियों का यह समूचा लोभ तजकर;

 क्षेत्र ऐसा ढूँढिये, जिसके विषय में ज्ञान हो। 
आपके इस सिरफिरेपन का जहाँ सम्मान हो। 
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गौरव शुक्ल 
मन्योरा 
लखीमपुर खीरी

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