कोरोना महामारी पर
मेरे हरे भरे गुलशन को जाने किसकी नजर लग गई।
कितने साथी छोड़ चुके हैं,
संबंधी दम तोड़ चुके हैं।
कितने परिचित हितू हमारे,
असमय हुए काल को प्यारे।
लाशों का अंबार लगा है,
कल क्या होगा किसे पता है।
चारों ओर मृत्यु का तांडव,
हाय हुआ यह कैसे संभव!
माता, पिता पुत्र या भाई,
भाभी, मामी, चाची, ताई ;
सब ने कुछ ना कुछ खोया है,
आज न किसका मन रोया है?
बिछड़ गए साले बहनोई,
छूटे कहीं ननद नंदोई।
सास कहीं तो कहीं ससुर पर,
टूटा विधि का कोप भयंकर।
देवर कहीं, कहीं देवरानी,
जेठ कहीं तो कहीं जेठानी।
स्वर्ग गमन कर गए अचानक,
कैसा आया समय भयानक।
सब पर पड़ा खौफ का साया,
हर चेहरे पर मातम छाया।
आज महामारी यह भीषण,
निगल रही कितनों को प्रतिक्षण।
शब्द थके हैं शोक जताते,
अश्रु चुके आँखों में आते।
संवेदना कहाँ से लाएँ,
कैसे किसको धैर्य बँधाएँ?
अपने तोड़ रहे सम्मुख दम,
देख रहे लाचार खड़े हम।
रिक्त नहीं बेड अस्पताल में,
दवा नहीं इस कठिन काल में।
वेंटीलेटर भरे पड़े हैं,
कहने को हम बहुत बड़े हैं।
ऑक्सीजन की किल्लत भारी,
राजनीति उस पर भी जारी।
अपनी कमी दूसरों के सिर,
मढ़े जा रहे हैं सब फिर फिर।
टूट रही सड़कों पर साँसें ,
गिनी नहीं जाती हैं लाशें ।
किस किसको बोलें नाकारा,
ध्वस्त हुआ 'सिस्टम' ही सारा।
संकट में सारा जनजीवन,
अजायुद्ध में रत नेतागण।
भाषण अपने सुना सुना कर -
दस मरने पर एक बता कर-
सबका पेट भरे देते हैं,
अपनी पीठ ठोक लेते हैं।
कोई कहीं न सुनने वाला,
नहीं देखने, गुनने वाला।
किस पर रोएँ, किस को कोसे,
देश हुआ भगवान भरोसे।
खोलो नयन, नींद को त्यागो,
सत्तासीनों जागो, जागो।
इस निरीह जनता को देखो,
पीड़ित मनुष्यता को देखो।
अब भी अगर न करवट लोगे,
सोचो किस पर राज्य करोगे।
रोती पुत्रहीन माँओं से,
पति विहीन इन विधवाओं से ;
पिता गँवाये हुए पुत्र से,
खोने वाले मित्र, मित्र से ;
वोटें कैसे माँग सकोगे,
क्या कह उन्हें सांत्वना दोगे।
इतने पर भी होश ना आए,
हो न व्यवस्था तुमसे पाए ;
तो फिर मुकुट उतार धरो सब।
सिंहासन खाली कर दो अब।।
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा
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