कुतुबमीनार
ओ कुतुबमीनार! तेरी असलियत तो आज देखी।
शेष तेरे प्रति हृदय में अब नहीं सम्मान कोई,
आज तेरे इस बड़प्पन पर नहीं अभिमान कोई।
आज पढ़ तेरे शिलापट शर्म से सर झुक गया है,
जान तेरी वास्तविकता हो रहा अनुभव नया है।
तू बनी है तोड़ सत्ताईस मंदिर हिंदुओं के,
ध्वंस कर के प्रार्थना-स्थल कुछ सरल से जैनियों के।
वह न मंदिर थे, हमारी अस्मिता की थे कहानी,
उच्चतम विज्ञान के थे भारतीयों की निशानी।
ज्ञान के भंडार ऋषियों की यहाँ थी वेधशाला,
शोध होता था यहाँ सम्पूर्ण दुनिया का निराला।
आह सत्ताइस नक्षत्रों के प्रतीकों को मिटाकर,
दुष्ट कुतुबुद्दीन तुझको क्या मिला उनको ढहाकर।
पत्थरों पर मूर्तियों के चित्र हैं उत्कीर्ण अब भी,
कह रहे तेरी मनस्थिति की कथा संकीर्ण अब भी।
नीच सौ धिक्कार तेरी क्रूरता के इस निशाँ पर,
इस घृणित दुष्कृत्य पर,अक्षम्य इस निर्लज्जता पर।
री कुतुबमीनार तेरे पत्थरों में विष भरा है,
आँख का पानी अभी मेरी नहीं इतना मरा है-
जो कि तेरे रूप पर हो मुग्ध शाबाशी तुझे दूँ,
वाहवाही किस तरह ओ खून की प्यासी तुझे दूँ।
तू गुलामों की गुलामी का लगे उच्छिष्ट सी है,
रक्त से रंजित कुटिल इतिहास के अपशिष्ट सी है।
इस बुलंदी में छिपी हैवानियत तो आज देखी।
ओ कुतुबमीनार तेरी असलियत तो आज देखी।"
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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