'' क्या हुआ अगर मैं मंदिर में ''
'' क्या हुआ अगर मैं मंदिर में भगवान पूजने नहीं गया?
क्या हुआ अगर मैं मस्जिद में अल्लाह ढूँढने नहीं गया?
क्या हुआ चार धामों की मैं यात्रा पर अगर नहीं निकला?
क्या हुआ मदीना मक्का मैं जाने के हेतु नहीं मचला?
क्या हुआ एक सौ आठ बार माला मैं पाया फिरा नहीं?
क्या हुआ दिवस में पाँच दफे मैंने नमाज की अता नहीं?
क्या हुआ ऋचाएँ वेदों की यदि मुझसे नहीं पढ़ी जातीं?
क्या हुआ आयतें यदि कुरान की मुझको समझ नहीं आती?
मैं अपने पापों को धोने गंगा में नहीं नहाया तो?
शैतान मानकर खंभों पर पत्थर यदि नहीं चलाया तो?
पर थाम धर्म का पट मैंने नफरत के बीज नहीं बोये,
पी पीकर मजहब की अफीम मैंने निज होश नहीं खोये।
क्या उचित और क्या अनुचित है इतनी तो है पहचान मुझे,
क्या पाप और क्या पुण्य यहाँ इसका मोटा तो ज्ञान मुझे।
इंसानों का बँटवारा कर रोटी सेंकी न सियासत की,
हिंदू को झूठा नहीं कहा मुस्लिम की नहीं वकालत की।
पर निर्दोषों की हत्या पर मेरा अंतर दहता तो है,
मासूमों से बर्बरता पर मेरा सीना फटता तो है।
इसका प्रमाण मिलता तो है मुझ में मनुष्यता जीवित है,
मेरी करुणा का क्षेत्र नहीं हिंदू मुस्लिम तक सीमित है।
है प्राणि मात्र के प्रति मुझ में अनुराग एक जैसा निश्चित,
दीखता एक सा है मुझको हर पीड़ित, दलित और शोषित।
हर दीन-दुखी के प्रति मुझमें है संवेदना एक जैसी,
हर एक बलात्कारी के प्रति है मुझमें घृणा एक जैसी।
मैं नहीं धर्म के चश्मे से देखा करता आतंकवाद,
ले-लेकर नाम खुदा ईश्वर का फैलाता दंगा फसाद।
मैं ढोंगी नहीं धर्मगुरु सा, मैं नहीं मौलवी सा कट्टर,
ना इसे पता ना उसे पता है कहाँ वास करता ईश्वर।
दोनों जी रहे स्वयं भ्रम में क्या ज्ञान और को बाँटेंगे,
दोनों ही वैमनस्यता की खाई को और बढ़ाएँगे।
केवल मनुष्य को ही न बाँटने का इनने षड्यंत्र किया,
प्रत्युत ईश्वर को काट पीट कर हममें तुममें बाँट दिया।
अब लड़ो और लड़ते जाओ ले ले कर अपना दीन धरम,
अब कटो और कटते जाओ पाले मन में यह झूठ भरम-
मेरा वाला भगवान तुम्हारे वाले से ज्यादा अच्छा,
मेरा वाला भगवान तुम्हारे वाले से ज्यादा सच्चा।
यह वहम तोड़कर देखो तो यह दुनिया कितनी सुंदर है,
यह अहम छोड़कर देखो तो नर नहीं यही परमेश्वर है।
इसकी सेवा से बड़ा धर्म खोजने दूर फिर जाना क्या,
इसकी पूजा को छोड़ ध्यान को इधर-उधर भटकाना क्या। ''
-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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