* माँ *
बचपन में हम जिसकी गोदी में छिपकर
आँचल की छाया पाकर , गले लिपटकर;
मन ही मन खुद को सेठ मान लेते थे ।
सारी चोटें, सब दर्द भुला देते थे।
जिसके छूने में यह जादुई असर था,
वह मेरी माता का ममतामय कर था।
माता! वह जिसके नामोच्चारण भर से-
श्रद्धा की उठती लहर स्वतः अन्तर से।
आदर से सारी देह नहा जाती है,
भावना अनिर्वचनीय जगा जाती है।
जिसका हम सबके रोम-रोम पर ऋण है,
जिससे होना संभव ही नहीं उऋण है।
वह जन्मदायिनी , जग में लाने वाली;
संस्कारों का ककहरा पढ़ाने वाली-
खुद तो पहाड़ सा दर्द सहन कर जाती;
है हर स्थिति से सामंजस्य बिठाती।
पर संतानों को व्यथित देख रत्ती भर,
जिसके सीने पर चल जाता है नश्तर ।
ऐसे निस्वार्थ स्नेह का जोड़ कहाँ है?
जग में माँ के रिश्ते का तोड़ कहाँ है?
उस माँ की शब्दातीत अतुल महिमा है,
वह माता करुणा की सजीव प्रतिमा है।
ऐसी माता को शत-शत बार नमन है,
ऐसी माता का कोटि-कोटि वंदन है।
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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