"महाकवि नीरज के महाप्रयाण पर "
क्या हुआ दहाड़ मार कर धरती रोई?
क्या हुआ ज्योति दिनकर ने असमय खोई?
सहसा क्यों हुआ विवर्ण चाँद का आनन?
मातम पसरा क्यों सरस्वती के आँगन?
क्यों अकस्मात निस्तेज हो गए तारे?
किसके वियोग में शोकमग्न हम सारे?
यह उथल पुथल यह हलचल नहीं अकारण,
उठ गया धरा से गीतों का नारायण।
हिंदी ने सुत निज अद्वितीय खोया है,
अब कभी न जगने को नीरज सोया है।
चिरनिद्रा में वह ही सोया न सिमटकर,
सो गया एक युग उसके साथ लिपट कर।
यूँ ही भू से नभ तक न गुबार भरा है,
यह व्यक्ति नहीं,कारवाँ एक गुजरा है।
अब कौन कहेगा ऐसे दिए जलाओ,
दुनिया का सकल अँधेरा दूर भगाओ।
'आओ मजहब ऐसा भी एक चलाएँ,
जिसमें इंसानों को इंसान बनाएँ।'
महसूस किसे यह आवश्यकता होगी,
खुद से ज्यादा पड़ोस की चिंता होगी।
हैं अन्मन गीत, गजल चुप, दुखी रुबाई,
नीरज की जग से अंतिम देख विदाई।
अब तुम्हीं कहो हम कैसे तुम्हें बुलाएँ,
इससे ज्यादा अब क्या माहौल बनाएँ।
छुप छुप कर अश्रु बहाने वालों देखो!
यह मोती व्यर्थ लुटाने वालों देखो!
जो कहता था कुछ सपने मर जाने से -
बेवक्त चंद फूलों के मुरझाने से -
है जीवन नहीं मरा करता,यह जानो,
है उपवन नहीं मरा करता, पहचानो।
वह चला गया यह ढाढस तुम्हें बँधाकर,
अब कभी लौट ना आने वाले पथ पर।
जन की पीड़ा का गायक चला गया है,
मानवता का ध्वज वाहक चला गया है।
शब्दों का अद्भुत अप्रमेय जादूगर,
भावों का मेरु, विचारों का रत्नाकर;
है चला गया पैगाम प्यार का देकर,
हो गया अमर, तजकर शरीर यह नश्वर।
सब मिल जुल रहें यही थी उसकी इच्छा,
आदर से ग्रहण करें हम उसकी शिक्षा।
उसकी आत्मा स्वर्ग में शांति पाएगी,
सच्ची श्रद्धांजलि यही कही जाएगी।
-गौरव शुक्ल
मन्योरा
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