Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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महाकाव्य कोई अँगड़ाई लेता है मन में

 

महाकाव्य कोई अँगड़ाई लेता है मन में


महाकाव्य कोई अँगड़ाई लेता है मन में, 
जितनी बार देह की तेरे भाषा पढ़ता हूँ। 
(1)
अहा! भंगिमाएँ यह कैसी सुमधुर सुमनोहर, 
अनायास मिल जाते मौन भावनाओं को स्वर। 
गिरा मुखर होती, वाचाल शब्द हो जाते हैं, 
अलंकार, रस, छंद प्रेरणा देने आते हैं। 

मेघदूत बाहर आने को लालायित होता, 
कालिदास बनने के लिए मचलने लगता हूँ। 
(2)
तेरी ऊँचाई नापूँ तो हिमगिरि नप जाता, 
तेरी गहराई थाहूँ तो सिंधु सिमट आता। 
तेरी कांति देखकर सहम उठा करता दिनकर, 
तेरा रूप निहार ठिठकने लगता है शशधर। 

यह विस्तार साधने चलता हूँ जब गीतों में, 
लगता है अपने कवित्व को सीमित करता हूँ। 
(3)
मेरी आशाओं के पंखों की उड़ान तुम हो ,
आन, बान ,सम्मान, शान हो, स्वाभिमान तुम हो ।
चमत्कार मेरे गीतों में तुमसे आया है, 
कविताओं में तुम्हें सजा कर के यश पाया है। 

पर मेरे कवि मन को नहीं तसल्ली मिली अभी, 
दिल में कुछ अरमान बड़ा करने का रखता हूँ।
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा 

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