Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मैं लोगों के मन के ऊपर

 

मैं लोगों के मन के ऊपर



मैं लोगों के मन के ऊपर, अपने घर की नींव रखूँगा,
मुझको सोने के सिंहासन, की रत्ती भर चाह नहीं है। 
                              (1)
तुम धन को भरने आए हो, काम तुम्हारा है, धन जोड़ो ;
सुख-सुविधाएँ संचित करके,सभी अभाव,दीनता छोड़ो। 
लेकिन मेरे उद्देश्यों का, पाठ नहीं इतना सीमित है ;
मेरे संस्कारों का मानव, मरा नहीं, अब भी जीवित है। 

मैं मन के बंधन खोलूँगा, 
विद्या ही धन है, बोलूँगा। 

तुम उलूकवाहिनी नवाजो, हंसवाहिनी मैं पूजूँगा ;
कविता मेरे लिए धर्म है, पूजा है, व्यवसाय नहीं है। 
                              (2)   
मैंने देखा है लोगों को, जिनके सम्मुख हँस बतलाते, 
ठीक पीठ पीछे उनकी ही, पाया है बदगोईं गाते। 
तुमको यह मैत्री जँचती है, जँचे, परंतु कलंक मुझे है;
वह शत्रुता मुझे भाती है, जो भिड़ती निश्शंक मुझे है। 

आलोचना मुझे    श्रेयस्कर, 
वह, जो की जाती है मुँह पर। 

आगे कुछ पीछे कुछ वालों, से मुझको भारी नफरत है;
झूठ मूठ आदर देने या   पाने में उत्साह नहीं है। 
                               (3)
मेरे प्रिय कवियों! कविता को, गद्य बनाकर गाने वालों! 
गति, यति, तुक, लय, छंद सभी से, इस को दूर हटाने वालों! 
कविता की महिमा घटती है आज अगर तो विस्मय क्या है?
फिल्मी गाने आदर पाते, हैं तो इसमें संशय क्या है? 

क्या पाठक श्रोता की गलती, 
इनकी कमी तुम्हें क्यों खलती। 

गीत एक विरचो, पर ऐसा, जग में तुम्हें अमर कर जाए;
कैसे अद्भुत कवि हो जिनको, कविता की परवाह नहीं है। 
                           (4)
 तुम खुश हो लोगों से बेमन अपने मुँह पर आदर पाते ;
बेबस या कि चाटुकारों से,  गर्दन में माला डलवाते। 
तुम इन वैभव पर इतराओ, गर्व न यह करने के मेरे ;
मैं तो बस इतना चाहूँगा, लोग बाद मरने के मेरे - 

स्नेह, प्रेम, श्रद्धा औ' आदर, 
से आएँ, दो फूल चढ़ाकर-

होड़ लगा, मेरी अर्थी को, कंधा दें, श्मशान पहुँचा दें, 
इसी फकीरी में खुश हूँ मैं, मुझको बनना शाह नहीं है। 

मैं लोगों के मन के ऊपर, अपने घर की नींव रखूँगा, 
 मुझ को सोने के सिंहासन की रत्ती भर चाह नहीं है।
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी

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