Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मैं समय हूँ

 
मैं समय हूँ

मैं समय हूँ।
आज आया हूँ तुम्हें कुछ   भेद गोपन मैं बताने,
आज आया हूँ तुम्हारे कान   में कुछ गुनगुनाने।
आज आया हूँ कि तुमसे बात कुछ दो टूक कर लूँ,
आज आया हूँ कि मैं हर इक   तुम्हारी पीर हर लूँ।

जानता हूँ मैं विरासत में तुम्हें कविता मिली है,
दूसरों को सीख देते हो कि क्या जिंदादिली है।
गीत गाते हो कि लोगों का पराक्रम जाग जाये,
शौर्य की हो स्थापना जग से निराशा भाग जाये।

किंतु जब बीती स्वयं पर  फूटकर के रो पड़े क्यों?
क्यों हताशा ओढ़ ली फिर, अश्रु आँखों में भरे क्यों?
दीनता यह किसलिये है, किसलिये है यह पलायन?
कंठ क्यों रुँध सा रहा है,क्यों हुआ अवरुद्ध गायन?

स्वप्न ही तो कुछ मरे हैं, भावनाएँ ही जली हैं;
शेष है जीवन अभी,कुछ  कामनाएँ ही छली हैं।
मैं किसी के हित हमेशा एक सा रहता नहीं हूँ,
रोक ले संसार कितना, किंतु मैं रुकता नहीं हूँ।

एक क्षण में रंक को राजा बनाता मैं रहा हूँ,
और राजा को बनाकर रंक आता मैं रहा हूँ।
मैं उठाकर आसमाँ तक फिर गिराना जानता हूँ,
औ' गिरे को आसमाँ तक मैं उठाना जानता हूँ।

आज अपने, कल पराये, खेल यह मेरे रचे हैं,
इसलिये वे पल जियो, जो शेष जीवन में बचे हैं।

मैं तुम्हारी तान हूँ, स्वर हूँ तुम्हारा, और लय हूँ,
मैं समय हूँ।"

                        -गौरव शुक्ल
                            मन्योरा

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