Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मैं तुम्हारी लेखनी हूँ

 
मैं तुम्हारी लेखनी हूँ।

याद है वह दिन मुझे जब मेज  से अपनी उठाकर,
कुछ ठिठकती, कुछ सहमती सी उँगलियों में दबाकर-
और उफनाते हृदय से, श्वाँस की गति कर नियंत्रित;
शब्द कागज पर उकेरे थे   कि मैं भी थी अचंभित।

भावना को किस कला से व्यक्त  तुमने कर दिया  था,
एक तुकबंदी रचाकर, धन्य मुझको भी किया था-
और दुनिया ने सराहा था  जिसे कविता समझकर;
भाग्य पर इतरा रही हूँ मैं तुम्हारे  हाथ      पड़कर।

उस दिवस से आज तक   अपने कलेजे से लगाये,
गीत कितनी ही विधाओं के    मुझे लेकर लिखाये।
हाथ भी अब सध गये हैं,   व्यंजना भी रम गयी है;
मातृ वीणावादिनी की भी    कृपा     ममतामयी है।

अब तुम्हारे भ्रू-विलासों में    भटकना भा गया है,
चित्त की हर वृत्ति का मुझको समझना आ गया है।
कल्पना में लीन हो    जब शून्य में तुम झाँकते हो,
व्योम पर चढ़कर तरंगों की    लिखावट बाँचते हो।

घास में कुछ खोजते से,       रेत में कुछ बीनते से,
या कि बतियाते पवन से,      पक्षियों पर रीझते से;
सनकियों सा आचरण करते पचासों     बार  देखा,
पागलों सी हरकतों का   ज्ञात है हर     एक लेखा।

रूप पर तेरे मुदित मन रीझती  हर      पल रही हूँ,
खेलती तेरे करों में मुग्ध,  अनथक      चल रही हूँ।
कवि! परमप्रिय कवि!! तुम्हारी थाह प्रतिदिन थाहती हूँ,
कह न पाई जो     कभी वह    बात कहना चाहती हूँ।

देखती हूँ आज फिर        अवसाद से संत्रस्त है तू ,
तोड़ लाया है हृदय फिर,     आज करुणाग्रस्त है तू ।
सोचती हूँ कवि-हृदय ,तेरे लिये अभिशाप   सा है,
पुण्य करके तू कमाता       कुछ हमेशा पाप सा है।

तू बहुत भावुक ,बहुत सीधा, बहुत सादा,  सरल है,
प्रेम का सैलाब सबके प्रति    भरे मन में  अटल है।
किंतु इस जग के   गणित की कुछ विषम नियमावली है,
भोगता पापी यहाँ सुख ,दुख   उठाता     निश्छली है।

इसलिये मत खेल सपनों से समझता    सत्य  भी  चल,
मात्र दिल  से  काम ना ले  बुद्धि का भी थाम   संबल।

आज कुछ साहस जुटाकर   कह रही  यह,    अनमनी हूँ।
मैं तुम्हारी लेखनी हूँ।"

                        -गौरव शुक्ल
                            मन्योरा
                       लखीमपुर खीरी
मोबाइल-7398925402

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