"मन भटकना चाहता है"
मन भटकना चाहता है रूप के संसार में फिर,
कल्पना में ही चले आओ पुराने मीत मेरे।
(1)
उस पुरातन प्रेम की अंतिम शिखा भी क्षीण होकर,
विस्मरण के गर्त में अस्तित्व खोना चाहती है।
धैर्य के पैरों तले धरती रही कुछ डगमगा है,
एकनिष्ठा की तपस्या भंग होना चाहती है।
पूर्व इससे मन सहारा दूसरा कोई तलाशे,
फिर मुझे तुम आज अपनाओ पुराने मीत मेरे।
मन भटकना चाहता है रूप के संसार में फिर,
कल्पना में ही चले आओ पुराने मीत मेरे।
(2)
फिर उसी त्रिभुवनजयी मुस्कान से मुझको निहारो,
इस तरह कुछ, नष्ट हो हर कामना ही सिर उठाती।
बाहुओं के पाश में कुछ यूँ जकड़ लो फिर मुझे तुम,
जिस जगह पर पहुँचकर हर लालसा हो नष्ट जाती।
जुड़ गए हैं तार जो मन के न वह सुलझें कभी भी,
कुछ उन्हें इस भाँति उलझाओ पुराने मीत मेरे।
मन भटकना चाहता है रूप के संसार में फिर,
कल्पना में ही चले आओ पुराने मीत मेरे।
(3)
रूप के संसार में संयम कठिन है जान कर भी,
मैं तुम्हारे नाम की ही रट लगाता जा रहा हूँ।
मैं तुम्हारी याद को शाश्वत समझकर प्रेरणा ले,
गीत कितने नित्य नूतन, देख लो मैं गा रहा हूँ।
मैं तुम्हारे प्रेम के मद में सभी कुछ भूल बैठा,
अब मुझे तुम तो न बिसराओ पुराने मीत मेरे।
मन भटकना चाहता है रूप के संसार में फिर,
कल्पना में ही चले आओ पुराने मीत मेरे।
-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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