Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मार डालेगा मुझे जब यह अकेलापन

 
मार डालेगा मुझे जब यह अकेलापन


मार डालेगा मुझे जब यह अकेलापन, 
तब तुम्हारा रूप गुण किस काम आएगा। 
यदि नहीं जीवित रहा मैं ही जगत में तो, 
कौन इस सौंदर्य पर कविता बनाएगा। 

कौन बोलेगा कि जब तुम साँस लेती हो, 
तब हमारे गीत में अमरत्व आता है। 
कौन बोलेगा कि तुम सजती सँवरती जब, 
अक्षरों में प्राण का तब तत्व आता है। 

शब्द सार्थक तब हुआ करते हमारे जब, 
वह तुम्हारी देह को छूकर गुजरते हैं। 
भाव मेरे अर्थ को तब प्राप्त होते हैं, 
जब तुम्हारे कंठ में चढ़ते उतरते हैं। 

कर सके तुमको न विचलित यदि कला मेरी,
तो भला उस का न होना और होना क्या? 
हो नहीं अनुमान मेरी वेदना का यदि, 
काव्य-कौशल व्यर्थ फिर वह शीश ढोना क्या? 

तुम तड़प उट्ठो न मुझसे बात करने को, 
तो समझ लो व्यर्थ मैं कविता बनाता हूँ। 
पग तुम्हारे यदि न मचलें साथ आने को, 
तो समझना साज मैं नकली सजाता हूँ। 

तुम न हो यदि साथ, पूरा जग रहे तो क्या? 
गर्व के लायक नहीं उपलब्धि यह मेरे। 
आह यदि मुँह से तुम्हारे ही नहीं निकले, 
फर्क क्या पड़ता अगर दें दाद बहुतेरे। 

प्राप्त हैं पुरुषार्थ चारों पास हो यदि तुम, 
दूर तुम तो निःस्व मुझ सा कौन है जग में। 
पास हो तुम तो सजा हर पथ प्रसूनों से, 
दूर तुम तो कोटि कंटक हैं बिछे मग में। 

सुख हमारा कुल निहित भीतर तुम्हारे है, 
और दुःखों का सकल आधार भी तुम ही। 
शक्तियाँ भी तुम तथा कमजोरियाँ भी तुम, 
रोग भी तुम ही तथा उपचार भी तुम ही। 

अब तुम्हीं कह दो तुम्हारे बिन चलूँ कैसे? 
शेष जीवन के दिवस किस भाँति काटूँ मैं? 
खोल कर दिल साथ किसके खिलखिलाऊँ मैं? 
यह व्यथा निस्सीम किसके साथ बाटूँ मैं? 

स्वप्न में ही एक दिन आकर हमें कह दो, 
बोझ अब यह बुद्धि से ढोया नहीं जाता। 
युक्तियाँ सारी लगा कर थक चुका हूँ मैं, 
और आँखों से अधिक रोया नहीं जाता।
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गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी

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