मीत मत छेड़ो मुझे
मीत मत छेड़ो मुझे मैं मौन रहना चाहता हूँ।
(१)
मौन मेरी साधना है, मौन ही संसार मेरा,
मौन मेरी भावना है, मौन ही विस्तार मेरा।
मौन मेरी व्यंजना, आशा,निराशा मौन मेरी,
मौन मेरे प्रश्न, उत्तर मौन, मौन विचार मेरा।
मौन ही भाषा हमारी, है समझ पाओ समझ लो,
मैं स्वयं अपने लिये कुछ भी न कहना चाहता हूँ।
मीत मत छेड़ो मुझे मैं मौन रहना चाहता हूँ।
(२)
महफिलों में था कभी,एकांत पाकर आज खुश हूँ,
आँधियों में दीप प्राणों का जलाकर आज खुश हूँ।
भीड़मय सड़कें शहर की,भी कभी अच्छी लगी थीं,
गाँव की सूनी मगर, पगडंडियों पर आज खुश हूँ।
शुद्ध एकाकीपना ही रास अब तो आ रहा है,
फिर जगत के इन प्रपंचों में न पड़ना चाहता हूँ।
मीत मत छेड़ो मुझे मैं मौन रहना चाहता हूँ।
(३)
कुछ दिवस पहले हमारे भी अधर थे खिलखिलाये,
मुँह हमारा देखते थे लोग आशाएँ लगाये।
पर समय का चक्र कुछ ऐसा चला है, ढह गये हैं-
कल्पनाओं के भवन, जो थे हृदय ने, कल बनाये।
दाह, कुंठा, वेदना अब तो प्रकृति ही बन चुकी है,
छोड़ने की फिर इसे कोशिश न करना चाहता हूँ
मीत मत छेड़ो मुझे मैं मौन रहना चाहता हूँ।
(४)
हाँ, कभी वाचालता भी ,अनुचरी मेरी रही थी,
कर गई उद्वेल जन को, वह कथा मैंने कही थी।
जो चली सुख शान्ति देती हर किसी को, वाक्-गंगा-
वह, हमारे ही हृदय रूपी हिमालय से बही थी।
किंतु कड़ुवाहट हृदय की, शब्द में भी भर गई अब,
बोलकर तुमसे न तुमको ,रुष्ट करना चाहता हूँ।
मीत मत छेड़ो मुझे मैं मौन रहना चाहता हूँ।
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा
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