Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मेघ से याचना

 
  'मेघ से याचना'
अब कृपा कर बंद कर दो मेघ यह उत्पात अपना, 
क्योंकि मेरी प्रियतमा सचमुच बहुत लाचार होगी। 

हे बिजलियों, रोक दो अपना अनर्गल यह चमकना, 
क्योंकि यह उसके हृदय में तीर सा होगा खटकता। 
बादलों, अंकुश लगा लो इस निरंकुश गर्जनों पर, 
म्लान ना हो जाय उसका चाँद सा चेहरा चमकता। 

है पवन शीतल, निवेदन एक तुमसे भी हमारा ;
इस विलक्षण वेग को अब बस करो विश्राम दे दो। 
हो बहुत तड़पा चुके तुम भी विवश मेरी प्रिया को, 
हो सके तो इन कुकृत्यों को तनिक आराम दे दो। 

तुम सबों की मार से संत्रस्त मेरी प्राण प्यारी, 
भूमि पर बैठी कहीं निज शीश घुटनों पर टिकाए ;
रो रही होगी निपट एकांत में निज विवशता पर, 
कल्पना में, ध्यान में, मेरी निभृत प्रतिमा सजाए। 

काश तुम भी समझ सकते इस विरह की वेदना को, 
काश तुमने भी विरह के कुटिल विष को पिया होता, 
और विरहाकुल इन्हीं उद्दीपनों के बीच घिरकर, 
कभी भी अनुभव स्वयं के तड़पने का किया होता। 

तुम न समझोगे कभी कोई विरहिणी की व्यथा को, 
क्योंकि अंतर में तुम्हारे पत्थरों का वास रहता। 
तुम बहुत चंचल प्रकृति के जीव हो बादल, तुम्हारा,
जल जिधर भी ढाल पा जाता उधर ही निकल बहता। 

तुम न समझोगे, विरह का दंश है कितना भयानक, 
किस तरह यह प्राण रहते कर दिया निष्प्राण करता। 
भूल जाता किस तरह भोजन, भजन, अशयन शयन सब, 
किस तरह इसके असर से व्यक्ति सौ सौ बार मरता।

हे बिजलियों, मेघ,हे शीतल झकोरों, वहां जाओ, 
जिस जगह पर दो सँजोगी जन मुदित मन मिल रहे हों, 
जिस जगह टकरा रही हों उष्ण दो श्वाँसें निरंतर, 
जिस जगह पर चरम सुख के पुष्प जैसे खिल रहे हों।

जिस जगह पर चिर विरह के बाद दो प्रेमी तड़पते, 
बद्ध आलिंगन खड़े हों जगत से निरपेक्ष होकर, 
या जहाँ पर स्पर्श को आतुर खड़े हों नवविवाहित, 
बह रही हो स्नेह-धारा शील के सापेक्ष होकर। 

तुम वहाँ जाओ जहाँ आनंद खुद साकार होकर, 
अति प्रफुल्लित गात लेकर झूमता कुछ गा रहा हो,
तुम वहाँ जाओ जहाँ अनुराग की उन्मत्तता में,
मुट्ठियों से रेत जैसा समय बहता जा रहा हो।

काम क्या वारिद तुम्हारा उस जगह है जिस जगह पर, 
विप्रलब्धा ध्यान को प्रिय में लगाए सिसकती हो। 
राग संसृति का न जिसमें शेष कोई रह गया हो, 
जो कि आठों याम प्रिय से भेंट को ही तरसती हो। 

जिस जगह पर पर्वतों से दिवस ढोये जा रहे हों, 
रात की चादर हजारों कल्प जैसी हो सरकती। 
बोझ सा लादे उदासी का जहाँ आती सुबह हो, 
और साँझ निरीह दुख का कफ़न ओढ़े हो उतरती। 

तुम अभी जाओ बलाहक हम बुलाएंगे तुम्हें तब, 
जब हमारी व्यथा के छँट जाँयगे बादल घनेरे। 
जब विरह अभिशाप से निर्मुक्त होकर हम मिलेंगे,
जब हमारी देह पूरे कर चुकेंगी सात फेरे। 

जब हमारी कामना अविवाहिता से ब्याहता बन, 
 पग धरेगी हृदय आंगन में बड़ी सम्भावना से। 
जब हमारी चिर - तृषित आकांक्षा जीवंत होकर 
मोद से उसको वरेगी चाहती थी जो सदा से। 

जब प्रिया मेरी रखे निज जानु पर हो शीश मेरा, 
स्नेह से अभिभूत केशों में उँगलियाँ फेरती हो। 
मैं बहकता जा रहा होऊं नयन में डूब उसके, 
और वह भी निष्पलक आनन हमारा देखती हो। 

नीरधर तुम तब चले आना, गरजना, बरस जाना, 
कसम अपनी तब तुम्हारा हृदय से स्वागत करूँगा। 
स्नेह से, आभार-पुष्पों से सजाकर हार तुमको, 
हर्ष से, उत्साह से, उल्लास से अर्पित करूँगा। 

किंतु तब तक के लिए हे सिंधुसुत जाओ यहाँ से, 
सम्मिलित हो किसी के सुख में उसे दुगुना बनाओ, 
करो अपना जन्म सार्थक, प्रेम पर सद्भाव रक्खो, 
और को आनंद दो, खुद आप भी खुशियाँ मनाओ। 
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