'मित्र '
"नहीं जो साथ दुख में छोड़ता है,
न नाता दुर्दिनों में तोड़ता है।
दिखाता सर्वदा सच्ची डगर है,
मुदित होता हमारी जीत पर है।
जरूरत पर हमेशा काम आता,
कमी मुँह पर हमारी है बताता।
प्रशंसा पीठ पीछे किंतु करता,
स्वयं भी सामने दिल खोल धरता।
छिपा जिससे हमारा कुछ नहीं है,
हमारा मित्र सच्चा भी वही है।
दुखी दुख में, सुखी सुख में हमारे,
हमारे बोझ अपने शीश धारे;
मिला चलता कदम से हर कदम है,
कभी ठंडा कभी लगता गरम है।
कभी खारा,कभी कटु-तिक्त बनकर,
हमारे हित सजाने हेतु तत्पर।
रहा करता सजग आठों पहर है,
हमारी हर घड़ी जिसको खबर है।
नहीं वह और कोई है हमारा,
सखा साथी हमारा मित्र प्यारा।
कभी बन कृष्ण,रण में हाँकता रथ,
बनाता कंटकों में भी सुगम पथ।
कभी बन कर्ण जीवन दान करता,
निछावर मित्रता पर प्राण करता।
विपद् में देख भामाशाह बनकर,
लुटा देता सकल संपत्ति बढ़कर।
समस्या का सभी हल मित्र सच्चा,
बड़े ही पुण्य का फल मित्र सच्चा।
सदा शुभ चाहता है मित्र सच्चा,
न प्रतिफल माँगता है मित्र सच्चा।
नमन हर मित्र को मेरा निवेदित!!
उन्हें रचना हमारी यह समर्पित!!"
----
- गौरव शुक्ल
मन्योरा
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY