Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

निस्तब्ध निशा

 
निस्तब्ध निशा 

इस निस्तब्ध निशा में मैं कर रहा स्वयं से बात, 
तुम समीप होतीं तो कितनी सुंदर होती रात। 

 हैं तुममें भी और बहुत हैं मुझमें भी अरमान, 
 एक दूसरे पर हम दोनों छिड़का करते जान। 

 तुम्हें दर्द हो उधर     इधर बेचैनी मेरी     बढ़ती, 
 मुझे फाँस लग जाय इधर तो तुमको उधर खटकती। 

 दूरी हम में इतनी है आ सकते कभी न पास, 
 सोच-सोचकर यह सब मन हो जाता बहुत उदास। 

 लगता है शून्यता चतुर्दिक मेरे मन की छाई, 
 तिमिर नहीं, कालिमा हृदय की है मेरे छितराई। 

 ओस नहीं यह मेरे आँसू बिखर रहे धरती पर, 
 मेरी पीड़ा को सांत्वना बँधाने उतरा अंबर। 

 तप्त हृदय को शीतल करने आती चली हवाएँ, 
 एकत्रित हो गीत विरह के गाती दसों दिशाएँ। 

 किंतु प्रकृति भी हो जाती मेरे समक्ष निरुपाय, 
 धैर्य मुझे देने को होते विफल समस्त उपाय। 

ध्यानावस्थित होकर जब पाना चाहता स्वयम् को, 
आँखों में कल्पना बसा देती है लाकर तुमको। 

 रोप गई हो कौन प्रणय-द्रुम मन के बीचों बीच, 
 उन्मूलन भी कठिन, कठिन पाना भी इसको सींच। 

 निकट कठिन आना जितना, उतना ही जाना दूर, 
 नियति चलाए जिधर उसी पथ चलने को मजबूर

 सौंप रहा हूँ तुम्हें विधाता अपना सारा भार, 
 नाव डुबा दो मेरी, चाहे पहुँचा दो उस पार। 
                 - - - - - - - - - -
गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ