Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

पाप का मेरे घड़ा अब भर चुका

 
पाप का मेरे घड़ा अब भर चुका शायद। 


पाप का मेरे घड़ा अब भर चुका शायद। 
                      (1)
 देखना पीछे पलटकर कब मुझे भाया,
 रौंदकर बढ़ता गया जो पंथ में आया। 
'अरगनी' पर टाँग सब रिश्ते दिए मैंने,
 हर निमंत्रण नेह का हो क्रूर ठुकराया। 

दंभ ऐसा था कि यह जग धूल लगता था ,
वह नशा अभिमान का अब झर चुका शायद। 
पाप का मेरे घड़ा अब भर चुका शायद। 
                      (2)
चीटियों को कब भला आटा दिया मैंने ,
जख्मियों को और जख्मी ही किया मैंने। 
ले गुलेलें पक्षियों पर वार करता था ,
पुण्यकारी एक भी पल कब जिया मैंने। 

 जान धर्माधर्म भी पकड़ी गलत राहें ,
हाथ से अब हर निकल अवसर चुका शायद। 
पाप का मेरे घड़ा अब भर चुका शायद। 
                       (3)
अब कि जब अपने पराए हो चुके सारे,
ढूँढता अवलंब लौटा हूँ उन्हीं द्वारे।
सोचता हूँ सब सजाएँ माफ हो जाएँ ,
खोजता फिरता कदाचित् दिवस में तारे। 

एक भी राजी नहीं अर्थी उठाने को ,
इस कदर खुद को कलंकित कर चुका शायद। 
पाप का मेरे घड़ा अब भर चुका शायद। 
                        (4)
रक्त काँटों सा नसों में चुभ रहा लगता ,
वेदना से देह का हर पोर है दुखता। 
अस्थियाँ विद्रोह करने पर उतारू हैं, 
शीश गर्वोन्नत धरा में जा रहा धँसता। 

साँस भी अहसान सी करती हुई आती ,
मृत्यु से पहले कहीं मैं मर चुका शायद। 
पाप का मेरे घड़ा अब भर चुका शायद। 
                    ________
गौरव शुक्ल 
मन्योरा 
लखीमपुर खीरी

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ