परमवीर चक्र विजेता नायक जदुनाथ सिंह की गौरव गाथा
वीर सपूतों की जननी है अपनी भारत माता,
शौर्य और साहस का इस मिट्टी से गहरा नाता।
समय-समय पर वीरों ने अपने कौशल दिखलाकर,
मान बढ़ाया इस धरती का अपने प्राण लुटा कर।
ऐसा ही था एक सपूत इसी मिट्टी में जन्मा,
भूल नहीं सकते हम उसका वह साहसिक करिश्मा।
शाहजहाँपुर, गाँव खजूरी का था रहने वाला,
शौक पहलवानी का बचपन से ही रखने वाला।
हम नायक जदुनाथ सिंह की बात आज करते हैं,
सुनकर गौरव गाथा जिसकी रोम फड़क उठते हैं।
था हनुमत् का भक्त सभी हनुमान-भक्त कहते थे,
उसके साहस की सराहना सभी किया करते थे।
सपना था जवान होकर सेना में भर्ती होना,
पूर्ण हुआ उन्निस सौ इकतालिस में स्वप्न सलोना।
विश्व युद्ध चल रहा दूसरा था जब दुनिया भर में,
तोपों बंदूकों की दहशत फैली थी घर-घर में-
बमबारी कब होगी कहाँ किसी को ज्ञात नहीं था,
था न सुरक्षित कोई,जो था जहाँ सभीत वहीं था।
भय था व्याप्त चतुर्दिक सहमे सभी नजर आते थे,
आसमान में उड़ता देख विमान, दुबक जाते थे।
आज मरेंगे कितने, कल कितनों की तैयारी है,
धूलि धूसरित होने की अगली किसकी बारी है।
था ऐसा माहौल कि शायद अब कुछ नहीं बचेगा,
कहीं गुफा या अंतरिक्ष में ही अब मनुज दिखेगा।
ऐसे कठिन समय में बर्मा में मोरचा सँभाले,
खड़ा वीर जदुनाथ सिंह था मौत गले में डाले।
एक तरफ भारत की फौजें, एक तरफ जापानी
तकनीकों से वीर लड़ रहे थे महान सेनानी।
अराकान की धरती देगी उस शौर्य की गवाही,
जब जदुनाथ सिंह ने लिख दी जापान की तबाही।
जापानी सेना का बेड़ा बिखर गया पल भर में,
अहम भूमिका जदूनाथ की थी उस घोर समर में।
निज वीरता दिखाकर तब सबका मन मोह लिया था,
पुरस्कार में नायक पद पर प्रोन्नत गया किया था।
सभी चकित थे अधिकारी उसके वीरत्व प्रखर से,
उसके साहस से, पराक्रम से, अचूक संगर से।
किंतु वीर पीछे मुड़कर के कब देखा करते हैं,
नये युद्ध, नूतन अवसर की राह तका करते हैं।
बहादुरी की नई इबारत लिखना चाहा करते,
रण में जाने को उद्धत रहते हैं, कभी न थकते।
मिले विजय या मिले वीरगति यही कामना लेकर,
युद्ध क्षेत्र में नाम कमा जाने को रहते तत्पर।
लालायित रहते हैं कुछ भूचाल मचा कर जाएँ,
कुछ तूफान उठा जाएँ, इतिहास रचाकर जाएँ।
चक्रवात की दिशा बदल दें, धाराएँ पलटा दें,
चट्टानों से टकराकर उनका चूरमा बना दें।
वीर वही जिसने सीखा हो पीछे कभी न हटना,
सिर देकर भी साभिमान सरहद की रक्षा करना।
वीर वही जो हँस कर सीने पर गोली खाता है,
अपनी मातृभूमि का सारा ऋण उतार जाता है।
वीर वही जिसकी दहशत से शत्रु काँप जाते हों,
देख समक्ष वक्ष पर सौ-सौ लोट साँप जाते हों।
वीर वही जिसकी शोहरत के किस्से सुन जन-जन के,
खड़े रोंगटे हो जाएँ, जय बोले रक्त उफन के।
वीर वही जिसकी गाथा सुन तन मन सराबोर हो,
श्रद्धा से झुक जाय शीश, उर भावों से विभोर हो।
लेकिन दुख होता है जब हम उन्हें भूल हैं जाते,
अपने असली महानायकों को पहचान न पाते।
यश देते हैं जिन्हें वीरता की पहचान नहीं है,
निज संस्कारों, मर्यादाओं का कुछ ज्ञान नहीं है।
पर्दे पर रोमांटिक दृश्यों की तलाश करते हैं,
स्वयं सभ्यता का अपनी हम सर्वनाश करते हैं।
बिठलाते हैं शीश नाचने वालों को बढ़-चढ़कर,
स्वयं नाचते जलसों में बहनों के हाथ पकड़ कर।
नायक और महानायक हम उनको बता बताकर,
बड़ी शान से पढ़ा कसीदे करते उनके जीभर।
रील शार्ट्स की आँधी में उड़ गई हया सारी है,
विकसित राष्ट्र बना लेने की अद्भुत तैयारी है।
नहीं वस्त्र ही घटे देह से पथ ही भटक गये हैं,
आखिर हम सब कहाँ सदी में नूतन अटक गये हैं।
अचरज नहीं भविष्यत् में यह ही समाज रह जाये ,
भद्दे-भद्दे गीतों पर कुल देश कमर मटकाये।
मिट जाए पौरुष एवम् वीरता लोमहर्षक ही,
और बुद्धिवादी रह जायें बने मूक दर्शक ही।
विषयांतर हो गया, खैर सन् अड़तालिस में आयें,
शेष कथा जदुनाथ सिंह की आओ, चलो, सुनायें।
सैंतालिस में था नापाक पाक ने हमला बोला,
काशमीर की वादी में घुस नया मोरचा खोला।
खुली चुनौती थी कि चलो आओ हमसे टकराओ,
बचा सको कश्मीर बचाओ या हमको दे जाओ।
जबरन ही कब्जा करने की जिद पर डटा खड़ा था,
बारामूला में आतंक मचाया बहुत बड़ा था।
कहते हैं कि खून की नदियाँ ऐसी गईं बहाई,
आबादी रह गई वहाँ की घटकर एक तिहाई।
खून खराबा, बलात्कार का नंगा नाच हुआ था,
हिंदू मुस्लिम दोनों पर समवेत कहर बरपा था ।
डेढ़ साल तक युद्ध चला था, है गवाह इतिहास,
काशमीर का हिस्सा एक अभी भी उसके पास।
पाकिस्तानी सेना की वहशत के किस्से सुनकर
खून खौलता था सबका वह दृश्य हृदय में गुनकर।
ऐसे में जदुनाथ सिंह था बेहद आग बबूला ,
बदला लेने की खातिर था वीर क्रोध से फूला।
आतुर था जग को अपनी प्रवीरता दिखलाने को,
अन्यायों पर गाज गिराने, सबक सिखा जाने को।
नौशेरा सेक्टर में आखिर वह अवसर भी आया,
राजपूत पलटन ने जब रक्षा का जिम्मा पाया।
पोस्ट मिली तेंधार, साथ दायित्व अतीव बड़े थे,
सैनिक चार मात्र जदुनाथ सिंह के साथ खड़े थे।
जब तक सेना पहुँचे दुश्मन को रोके रखना था,
शीश कटे तो कटे पर न पीछे किंचित हटना था।
मौका पाकर तभी शत्रु ने बोल दिया हमला भी,
उसके दृष्टिकोण से निर्णय उसका रहा भला भी।
किससे मुकाबला है पर उसको एहसास नहीं था,
पाँच व्यक्ति हैं या पूरी सेना, आभास नहीं था।
नायक जदूनाथ ने देखा आ पहुंँचा है दुश्मन,
रोयाँ-रोयाँ सुलग उठा,जल उठा क्रोध से तन मन।
प्रेरित किया साथियों को कि चुनौती बड़ी कठिन है,
पर माँ ने जिस हित जन्मा था, आ पहुँचा वह दिन है।
मित्रों इनको इनकी भाषा में जवाब देना है,
इनके अनाचार का बदला सूद सहित लेना है।
आज परीक्षा होगी भारत के सुशौर्य साहस की,
आज परीक्षा होगी माँ के दूध, देश के यश की।
डटकर मुकाबला दुश्मन का हम सब यहीं करेंगे,
साँस आखिरी के आने तक पीछे नहीं हटेंगे।
जीत गये तो कल हम सारे विजयी कहलाएँगे,
मरे अगर तो हम शहीद की श्रेणी में आएँगे।
पर सीमा का एक इंच भी देना नहीं सहन है,
मृत्यु जिसे कहते हैं वह हम सब की बड़ी बहन है।
रहें एकता से हिल मिलकर सुखी देश के वासी,
हो अखंड भारत का सपना हो विकास आकाशी।
खड़े हुए तनकर आपस में 'राम-राम' सब बोले,
बंदूकें पकड़ीं कसकर, तैयार किये हथगोले।
'बोल बजरंगबली की जय' कह हुआ युद्ध उद्घोष!
'हनूमान की हूंँ प्यारे' कह छाया मन में जोश!
झपटे पांँचों वीर सिंह जैसे झपटे श्वानों पर,
टूट पड़े बन कहर साथ सबके सब शैतानों पर।
वह छोटी सी टुकड़ी सेना की इस तरह दहाड़ी,
एकबारगी काँप गया दुश्मन,हिल उठी पहाड़ी।
चट-चट, चट-चट, चट-चट की ध्वनि गूँज उठी अंबर में,
कट-कट गिरने लगे शत्रु उस भीषण महासमर में।
मगर इधर थे पाँच पाक की फौज उधर भारी थी,
उनसे लोहा लेने की कोशिश परंतु जारी थी।
छाई धुंध अपार पाक की सेना लगी बिखरने,
लाशें बन कर एक-एक कर शत्रु लग गए गिरने।
थे सुप्रशिक्षित वीर, निशाने थे अचूक उन सबके,
एक-एक सैनिक भारी था सौ - सौ पर दुश्मन के।
चली गोलियों पर गोली पर सम्मुख रहे डटे वे,
गोलों पर गोले बरसे पर पीछे नहीं हटे वे।
बढ़ा न पाया दुश्मन आगे एक इंच भी पांँव,
चालबाजियांँ रहीं धरी, हो गया विफल हर दाँव।
किंतु हाय! मंजूर दैव को आज और ही कुछ था,
चुना विधाता ने उनके हित ताज और ही कुछ था।
एक-एक कर चारों साथी हुए वीरगति प्राप्त,
दु:ख हुआ पर रोष दस गुना हुआ देह में व्याप्त।
निकल खुले में एकाकी गोलियांँ लगा बरसाने,
मार डालने की अथवा मर जाने की जिद ठाने।
चंडी हुई सवार शीश पर, मचा दिया भूचाल,
क्षतविक्षत तन हुआ, हुआ शोणित से पूरा लाल।
पर पल-पल विकराल वीर वह अधिक नजर आता था,
मृत्यु सामने देख और निर्भीक हुआ जाता था।
पीछे से अपनी सेना भी आ पहुंँची थी पास,
खुश था खाकर घाव, जीत का था अब तो विश्वास।
हो प्रसन्न नभ और निहारा मुँदते नयन खोलकर,
याद किया निज इष्ट देव को जय-जय हिंद बोलकर।
तभी एक गोली सीने में लगी एक मस्तक में,
लुटा दिए निज प्राण विहँस करके स्वदेश के हक में।
मरकर हुआ अमर सीमा पर वह अद्भुत बलिदानी,
याद करेंगे युगों-युगों हम उसकी अजर कहानी।
मिली विजय भी, साथ वीरगति पाई उस योद्धा ने,
पोस्ट बचाकर कीर्ति अजस्र कमाई उस योद्धा ने।
परम वीरता चक्र उसे दे हमीं गौरवान्वित हैं,
सम्मानित कर उसे वस्तुतः हम ही सम्मानित हैं।
उसका नाम रहेगा जब इतिहास लिखा जाएगा,
और भविष्यत भी उससे प्रेरणा प्रचुर पाएगा।
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रचयिता
गौरव शुक्ल
मन्योरा
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