प्रभु! तेरी माया का देश सरस इतना था
प्रभु! तेरी माया का देश सरस इतना था,
मैं भी इस में भटक गया तो विस्मय क्या है?
(1)
कोरे कागज सा मन लेकर जग में आया,
नहीं साथ में था कोई पूर्वाग्रह लाया।
जो मुझ में झलका वह निर्मित यहीं हुआ था,
अच्छा बुरा यहीं मैंने सब कुछ अपनाया।
अब मैं दोषी, या दोषी यह सृष्टि तुम्हारी?
मैं भी इसमें बहक गया तो विस्मय क्या है?
प्रभु! तेरी माया का देश सरस इतना था,
मैं भी इस में भटक गया तो विस्मय क्या है?
(2)
तेरी इच्छा बिना नहीं पत्ता भी हिलता,
सुना पुष्प हर तेरे ही प्रभाव से खिलता।
साथ-साथ यह भी जाना मनुष्य को उसके,
अच्छे बुरे कर्म का फल जीवन में मिलता।
कर्म कराते तुम्हीं अगर तो फल हम पर क्यों?
प्रश्न हमें यह खटक गया तो विस्मय क्या है?
प्रभु! तेरी माया का देश सरस इतना था,
मैं भी इस में भटक गया तो विस्मय क्या है?
(3)
बड़े यती, योगी, संन्यासी, ज्ञानी-ध्यानी,
कौन बचा है जिसने इस से हार न मानी।
जग में सच का साधु कौन हो सका आज तक,
किस ने इच्छाओं की शक्ति नहीं पहचानी।
तो फिर मैं भी उचित और अनुचित करने का,
भूल अगर कुल सबक गया तो विस्मय क्या है?
प्रभु! तेरी माया का देश सरस इतना था,
मैं भी इस में भटक गया तो विस्मय क्या है?
(4)
पाप पुण्य में मैंने जीवन नहीं गँवाया,
सहज भाव से जो मिल गया उसे अपनाया।
यही सोचकर सब कुछ तेरा रचा हुआ है,
मैंने सब से प्यार किया ना कुछ ठुकराया।
दुर्बलताओं का समुद्र था मेरे भीतर,
कुछ बाहर भी छलक गया तो विस्मय क्या है?
प्रभु! तेरी माया का देश सरस इतना था,
मैं भी इस में भटक गया तो विस्मय क्या है?
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गौरव शुक्ल
मन्योरा
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