रातदिन था ढूँढता फिरता जिसे
रातदिन था ढूँढता फिरता जिसे,
कल्पना, तुम हो वही,साकार क्या?
(1)
वेदना की धुंध सहसा छँट गई,
कट गई नैराश्य की काली निशा।
तीव्रतम अवसाद पर बिजली गिरी,
हारकर बदली विकलता ने दिशा।
खिन्नता से व्याप्त अंतर में लगीं,
गूँजने गहरे कहीं शहनाइयाँ।
ढोल, ताशों की, मृदंगों की मधुर,
ध्वनि, गई बिसरा सभी कठिनाइयाँ।
पा तुम्हें, आपादमस्तक लीन हूँ,
हर्ष में, मैं दूँ तुम्हें उपहार क्या?
रात दिन था ढूँढता फिरता जिसे,
कल्पना, तुम हो वही,साकार क्या?
(2)
देखता हूँ, झूमती सारी धरा,
नाचता सा लग रहा है यह गगन।
मत्त है उन्माद में सारी प्रकृति,
गीत सा कुछ गुनगुनाती है पवन।
हर कली के होंठ पर मुस्कान है,
लद गई हैं बौर से अमराइयाँ।
चूमकर तट को जलधि अभिभूत है,
आपगाएँ ले रहीं अँगड़ाईयाँ।
प्रीति का मंडप बना ब्रह्मांड है,
ध्वस्त स्वप्नों को मिला आधार क्या?
रात दिन था ढूँढता फिरता जिसे,
कल्पना, तुम हो वही,साकार क्या?
(3)
प्रश्न सारे हो गए हल एक ही,
सूत्र से, जग का बड़ा आश्चर्य है!
मात्र ढाई अक्षरों ने दे दिया,
विश्व के हर लेख का तात्पर्य है!
हो गए व्याख्यान हैं बौने सभी,
कौन रचनाधर्मिता अवशेष है?
नाम लिखकर के तुम्हारा तोड़ दूँ,
यह कलम, मन दे रहा आदेश है।
खोलकर अंतर दिखाना चाहता,
हूँ तुम्हारे प्रति भरे उद्गार क्या?
रात दिन था ढूँढता फिरता जिसे,
कल्पना, तुम हो वही,साकार क्या?
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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