एससी एसटी ऐक्ट के संबंध में -
कहने में अच्छा लगता है, खून एक हम सबका ;
संविधान है एक और कानून एक हम सबका।
कहने में अच्छा लगता है, हम सब भाई-भाई ;
धर्म,जाति,भाषा,मजहब के भले पृथक अनुयायी।
कहने में अच्छा लगता, न्यायालय सर्वोपरि है ;
संविधान हर एक धर्म की पुस्तक से बढ़कर है।
दुख के साथ परंतु आज कहने के लिए विवश हूँ,
बँधा नहीं पा रहा हृदय को किसी भाँति ढाढ़स हूँ।
देख रहा हूँ राजनीति किस हद तक गिर सकती है,
वोट हेतु नेताओं की मति कितनी फिर सकती है।
न्यायालय को संसद करती सरेआम अपमानित,
वोटों की लिप्सा के सम्मुख न्याय हो रहा कुंठित ;
न्यायालय ने सच्चाई से था निज धर्म निबाहा,
एससी एसटी एक्ट का न हो दुरुपयोग था चाहा।
न्यायालय ने पाया जब इस धारा में पंजीकृत,
हैं अधिकांश मामले झूठे,गढ़े, दुराग्रह प्रेरित।
निर्दोषों को देख यातना सहते जब सकुचाया,
उसमें रंचमात्र संशोधन का फैसला सुनाया।
दोष सिद्ध होने से पहले दंड विधान नहीं हो,
न्याय-धर्म की मूल भावना का अपमान नहीं हो।
किंतु हाय! वह मुद्दा तुमने हाथों-हाथ लपककर,
वोट बैंक की राजनीति से सीधे उसे जोड़ कर ;
लाभ राजनीतिक लेने को दैत्यों सा ललचाये,
न्यायाधीशों को अविवेकी कहने में न लजाये।
पुनर्विचार याचिका पर निर्णय आने तक रुकते,
अधिक नहीं सुप्रीम कोर्ट का मान तनिक तो रखते।
पर तुमने इस मुद्दे पर जो अधीरता दिखलाई,
न्यायालय की गरिमा की धज्जी जिस तरह उड़ाई।
जितनी तत्परता से तुम ने यह कानून बनाया,
जिस आतुरता से प्रस्ताव अदालत का ठुकराया ;
कितने जहरीले हो, यह बतलाने को काफी है,
खोट तुम्हारी नीयत का प्रकटाने को काफी है।
काश! राम मंदिर मुद्दे पर साहस यही दिखाते,
काश! तीन सौ सत्तर धारा पर भी 'बिल' ले आते।
लेकिन है धिक्कार तुम्हारी कथनी पर, करनी पर ;
छप्पन इंची सीने पर, इस 'बहादुरी' अदनी पर।
राजनीति ही जब समाज में बैर भाव फैलाए,
राजनीति ही बाँटो, राज करो का जाल बिछाए ;
संविधान ही जहाँ एकता का निषेध करता हो,
संविधान ही जाति-पाँति का विष मन में भरता हो;
जहाँ आग से आग बुझाने का उपक्रम हो जारी,
नफरत को मेटने हेतु हो नफरत की तैयारी;
जहाँ जाति आधारित हों कानून बनाए जाते,
उसके बाद एकता के हों स्वप्न सजाए जाते ;
यही तरीका, तो इससे दयनीय और फिर क्या है?
संविधान में और मनु स्मृति में फिर अंतर क्या है?
ऐसे ही उपाय होंगे तो कभी न द्वेष छँटेगा;
सामाजिक ढाँचा भारत का कभी नहीं सुधरेगा।
वोट बैंक की छिछली राजनीति से बाहर आओ,
जाति नहीं, आवश्यकता आधारित वर्ग बनाओ।
लाभ जरुरतमंदों तक पहुँचे ऐसा उपाय हो,
हर पीड़ित के लिए एक जैसा उपलब्ध न्याय हो।
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गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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