सरस्वती वंदना
माँ शारदे हृदय में, उज्ज्वल विचार भर दे।
दें दृष्टि नव जगत को, माता यथेष्ट वर दे।
(1)
कर्तव्य में हमारी, निष्ठा अडिग, अचल हो,
दायित्व निर्वहन की, हर भावना सबल हो।
कठिनाइयाँ पथों की, हम को डिगा न पाएँ,
प्रतिरोध सैकड़ों हों, तूफान लाख आएँ।
गतिरोध नष्ट हो हर, यश बढ़ चले हमारा,
भीषण बवंडरों में, दीपक जले हमारा।
आलस्य भाग जाए, तम का विनाश कर दे।
ना हो कभी तिरोहित, माँ ज्योति वह अमर दे।
(2)
तम - तोम छाँट पाएँ, भ्रम पाश काट पाएँ,
मद- मोह- मत्सरों का, हर खड्ड पाट पाएँ।
हों गुंजरित दिशाएँ, विज्ञान- ज्ञान- बल से,
नव पीढ़ियाँ हमारी, भटकें न छद्म - छल से।
कौशल नया बिखेरें, नूतन प्रभात लाएँ,
हर जाति-पंथ-मजहब, को भूल साथ आएँ।
हम चल पड़ें जिधर को, संसार चल उधर दे।
वरदान- ज्ञान- देवी, कर फेर शीश पर दे।
(3)
यह जन्मभूमि जननी, प्रिय स्वर्ग से अधिक हो,
संपन्न हर कृषक हो, खुशहाल हर श्रमिक हो।
धनिकों व निर्धनों की, दूरी घटे परस्पर,
ऊँचा अधिक अधिक हो, ध्वज राष्ट्र का निरंतर।
हर दृष्टि लक्ष्य पर हो, भटके न ध्यान अपना,
फिर विश्व गुरु कहाये, भारत महान अपना।
आदर्श दृढ़ बना दे, सत्कामना प्रखर दे।
अंतर्निहित उमंगों, को माँ नवीन स्वर दे।
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गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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