सावन के आगमन पर दो छंद
(१)
आतप व्यतीत हुआ फिर से सदा की भाँति,
काले-काले मेघ नभ में विचरने लगे।
वृष्टि का बना विधान, हर्षित हुआ किसान;
दादुर दिखे, मयूर नृत्य करने लगे।
सावन पधारा ऐसा, प्रकृति सजीव हुई,
पद्म-पंकजों के दृश्य मन हरने लगे।
जितना संयोगी जन हर्ष में निमग्न हुए,
उतना वियोगियों के अश्रु झरने लगे।
(२)
वसुधा सकल कुछ ऐसी उल्लसित हुई,
मानो हो गगन से मिलन हेतु मचली।
भृंगों को न अवकाश मकरन्द पान से है,
देख देख के सुमन इतराती तितली।
सावन है या कि परिवेश में घुली है सुधा,
या कि सुरापान कहीं कर आई बिजली?
मादक समीर मंद मंद इस भाँति चला ,
मानो कामदेव की सवारी ही हो निकली।
-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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