मेरी कवितायें सुन दुनिया हुई बहुत भावाभिभूत पर,
जग की खातिर नहीं तुम्हारी खातिर मैंने रचना की थी।
(1)
जनता के आदर को मैंने कब अपना आदर्श बनाया,
लोग पुरस्कारों का भी तो मेरे पथ को बदल न पाया।
सचमुच केवल तुम्हें लक्ष्य कर,
मैं रचता था गीत निरंतर।
एक दिवस मेरी कविता को सुनकर मुझे याद कर-कर के,
आह भरोगी तुम भी मैंने केवल यही कामना की थी।
मेरी कवितायें सुन दुनिया हुई बहुत भावाभिभूत पर,
जग की खातिर नहीं तुम्हारी खातिर मैंने रचना की थी।
(2)
मैंने लिखा कि इसी बहाने आए मेरा ध्यान तुम्हें भी,
मेरी करुणा का यत्किंचित हो पाए अनुमान तुम्हें भी ;
सोचा था कवितायें लिख कर,
दूँ तेरे कर कमलों में धर ;
किंतु हाय कैसी विडंबना मैं यह भी तो नहीं कर सका,
हुई निरर्थक आज तलक जो मैंने कठिन साधना की थी।
मेरी कवितायें सुन दुनिया हुई बहुत भावाभिभूत पर,
जग की खातिर नहीं तुम्हारी खातिर मैंने रचना की थी।
(3)
मैं अनजान काव्य के तत्वों से कविता का मर्म न जानूँ,
गलत सही तुकबंदी करके भ्रमवश अपने को कवि मानूं।
पर मेरी कविता को सुनकर,
सहृदय रीझ उठे कुछ गुनकर।
मैंने इसे प्रभाव तुम्हारे प्यार और नफरत का माना,
वर्ना मैंने भला कौन सी मौलिक नई कल्पना की थी।
मेरी कवितायें सुन दुनिया हुई बहुत भावाभिभूत पर,
जग की खातिर नहीं तुम्हारी खातिर मैंने रचना की थी।
(4)
कोई कहने लगा आप ही कविता में है दर्द हमारा,
कोई बोला मैंने जिसको भोगा तुमने वही उतारा।
कोई इनको अश्रु कह गया,
कोई भर कर आह रह गया।
मगर आज तक नहीं तुम्हारी कोई मिली टिप्पणी मुझको,
मैंने जिसके लिए आज तक यह संपूर्ण सर्जना की थी।
मेरी कवितायें सुन दुनिया हुई बहुत भावाभिभूत पर,
जग की खातिर नहीं तुम्हारी खातिर मैंने रचना की थी।
-------------
गौरव शुक्ल
मन्योरा
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY